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षड्विंशस्तम्भः ।
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प्रथम ब्राह्वयविवाहविधि लिखते हैं । शुभ दिनमें, शुभ लग्न में, पूर्वोक्त गुणसंयुक्त वरको बुलवाके स्नान अलंकार करके संयुक्त हुए तिस वरकेताइ, अलंकृत कन्या देवे . ।
मंत्रो यथा ॥
" || ॐ अर्ह सर्वगुणाय सर्वविद्याय सर्वसुखाय सर्वपूजिताय सर्वशोभनाय तुभ्यं वस्त्रगंधमाल्यालंकारालंकृतां कन्यां ददामि प्रतिगृह्णीष्व भद्रं भव ते अर्ह ॐ ॥”
इस मंत्र करके बद्धांचलदंपती - स्त्रीभर्ता, अपने घरमें जावे ॥ इति धाम्य ब्राह्वयविवाहः ॥ १ ॥
प्राजापत्य विवाह जगतमें प्रसिद्ध है, इसवास्ते विस्तारसें कहेगें. ॥ २ ॥ आर्ष विवाहमें वनमें रहनेवाले मुनि, ऋषि, गृहस्थ अपनी पुत्रीको, अन्यऋषिके पुत्रकेतांइ, गौ बैलके साथ देते हैं. तहां अन्य कोई उत्सवादि नही होते हैं, इस विवाहका मंत्र जैनवेदोंमें नही है. जैन वेदकरके वर्णादिको आश्रित हुए जनोंके आचार कथन करनेसें, जैनों को ऐसें विवाहके अकृत्य होनेसें । दैवतविवाह में भी ऐसेंही जाणना. । इन दोनों विवाहोंके मंत्र परसमयसें जाणने ॥ इति धार्म्य आर्षविवाहः ॥ ३ ॥
दैवत विवाह में तो, पिता, अपने पुरोहितकेतांइ इष्ट पूर्त्त कर्मके अंत में अपनी कन्याको दक्षिणाकीतरें देवे ॥ इति दैवतो धार्म्य विवाहः ॥ ४ ॥ ये चार धायविवाह हैं. ॥
पितादिके प्रमाणविना अन्योन्यप्रीतिकरके जो उद्यम होना, सो गांधर्व विवाह । १ ।
पणबंधके विवाह करना, सो आसुरविवाह ॥ २॥
हठसे कन्याको ग्रहण करे, सो राक्षसविवाह. ॥३॥
सुप्त, और प्रमत्तकन्याको ग्रहण करनेसें, पैशाच विवाह कहा जाता है. ॥ ४ ॥ माता, पिता, गुरु, आदिकी आज्ञा न होनेसें इन चारों विवाहों को विवाहज्ञ पुरुष पापविवाह कहते हैं. ॥ तथा ब्राहृय १, आर्ष २, और दैवत ३,
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