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चतुर्विशस्तम्भः
३५ करके भोजन करना, यह उत्तम पक्ष है. क्षत्रियने दंड अजिन धारण करके दश वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत आपही पाक करके, देवगुरुकी सेवामें तत्पर होके, भोजन करना; और वैश्यने दंड अजिन धारण करके स्वकृत भोजन करके बारां वर्षसे लेके सोलां वर्ष पर्यंत भोजन करना; यह उत्तम पक्ष है. । यदि कार्यव्यग्रतासें तितने दिन न रह सके तो, छ (६) मास पर्यंत रहना. तदभावे एक मास पर्यंत, तदभावे पक्ष पर्यंत, तदभावे तीन दिन रहना. यदि तीन दिन भी न रह सके तो, तिसही उपनयनबतादेशके दिनमेंही विसर्ग करिये, सोही कहे हैं । उपनीत, तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशायोंमें जिनप्रतिमाके आगे पूर्ववत् युगादिजिनस्तोत्र सहित शक्रस्तव पढे. तदपीछे आसनपर बैठे गुरुके आगे नमस्कार करके हाथ जोडके ऐसें कहे ॥" भगवन् देशकालाद्यपेक्षया व्रतविसर्गमादिश" ॥ गुरु कहे ॥"आदिशामि ॥"फिर नमस्कार करके शिष्य कहे॥"भगवन् ममव्रतविसर्ग आदिष्टः ॥" गुरु कहे॥'आदिष्टः॥” फिर नमस्कार करके शिष्य कहे ॥“भगवन् व्रतबंधो विसृष्टः।” गुरु कहे ॥“जिनोपवीतधारणेन अविसृष्टोस्तु स्वजन्मतः षोडशाब्दी ब्रह्मचारी पाठधर्मनिरतस्तिष्ठेः ॥ तदपीछे पंचपरमेष्ठिमंत्र पढता हुआ शिष्य, मौंजी, कौपीन, वल्कल, दंड, इनको दूर करके, गुरुके आगे स्थापन करे; और आप जिनोपवीतधारी श्वेतवस्त्र उत्तरीय होके गुरुके आगे नमस्कार करके बैठे, तव गुरु तिस बारां तिलकधारी उपनीतके आगे उपनयनका व्याख्यान करे।
तद्यथा ॥ आठ वर्षके ब्राह्मणको, दश वर्षके क्षत्रियको, और बारां वर्षके वैश्यको, उपनयन करना तिसमें गर्भमास भी बीचमेंही गिणने । तथाच ॥
"जिनोपवीतमिति जिनस्य उपवीतं मुद्रासूत्रमित्यर्थः॥” जिनका उपवीत अर्थात् मुद्रासूत्र सो कहावे जिनोपवीत. । नवब्रह्मगुतिगर्भरत्नत्रय, येह पुरा, श्रीयुगादिदेवने गृहस्थीवर्णत्रयको अपनी मुद्राका धारण करना यावत् जीवतांइ कहा था. । तदपीछे तीर्थक व्यवच्छेद हुए,
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