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चतुर्विंशस्तम्भः। हे भगवन् ! तारा मुझको, निस्तारा मुझको, उत्तम करा मुझको, अतिशयसाधु (श्रेष्ठ ) करा मुझको, पवित्र करा मुझको, पूज्य करा मुझको, तिसवास्ते हे भगवन् ! प्रमादबहुल गृहस्थधर्ममें मेरेको कुछक रहस्यभूत सुकृत कथन करो.॥
तब गुरु कहे ॥ ___ “॥ वत्स सुष्टुनुष्ठितं सुष्टु पृष्टं ततः श्रूयताम् ॥" हे वत्स अच्छा करा, भला पूछा, तिसवास्ते तूं श्रवण कर.॥
दानं हि परमो धर्मो दानं हि परमा क्रिया॥ दानं हि परमो मार्गस्तस्मादाने मनः कुरु ॥ १॥ दया स्यादभयं दानमुपकारस्तथाविधः॥ सर्वो हि धर्मसंघातो दानेन्तर्भावमर्हति ॥ २॥ ब्रह्मचारी च पाठेन भिक्षुश्चैव समाधिना ॥ वानप्रस्थस्तु कष्टेन गृही दानेन शुद्धयति ॥३॥ ज्ञानिनः परमार्थज्ञा अर्हन्तो जगदीश्वराः ॥ व्रतकाले प्रयच्छन्ति दानं सांवत्सरं च ते ॥४॥ गृह्णतां प्रीणनं सम्यक् ददतां पुण्यमक्षयम् ॥
दानतुल्यस्ततो लोके मोक्षोपायोस्ति नाऽपरः॥५॥ अर्थः-दानही परम उत्कृष्ट धर्म है, दानही परमा क्रिया है, दानही परम मार्ग है, तिसवास्ते दान देनेमें मन कर.। अभयदानसें दया होवे है, दानसेंही तथाविध उपकार होवे है, सर्वही धर्मसमूह दानमें अंतर्भाव हो सक्ता है। ब्रह्मचारी पाठ करके, साधु समाधि करके, वानप्रस्थ कष्ट करके, और गृहस्थी दान करके शुद्ध होता है. । तीन ज्ञानके धर्ता परमार्थके जाणकार, ऐसें अहंत भगवंत जगदीश्वर भी व्रतसमयमें सांवत्सर दान देते हैं.। दान ग्रहण करनेवालेको तो, दान तृप्त करता है; और देनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त कराता है; तिसवास्ते दानके समान दूसरा कोई मोक्षका उपाय लोकमें नहीं है. ॥ ५॥ जिसवास्ते हे वत्स ! तैनें ब्राह्मण
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