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एकादशस्तम्भः।
२९७ दादि पांच क्रमसें) स्मरण करते हुए कल्पवृक्षकीतरें भक्तिमें तत्पर । पुरुषोंको क्या क्या मनवांच्छित पूर्ण नहीं करता हैं ? अपितु सर्व करता है.। कैसा है तत्वपंचक ? पापकी जातिका नाश करनेवाला। इति ॥ अथवा ॥' रेण्यं ' 'धीमहि ' इहां 'हि' का 'ह् ।'रे' का 'र'। धी' का दीर्घ 'ई'। और ‘ण्यं' का '' बिंदु। इन सर्वके एकत्र जोडनेसें मायाबीज होता है। अर्थात् 'ह्रीं' कार होताहै । सो भी अचिंत्य शक्तियुक्त है, सर्व मंत्रोंमें राजा समान होनेसें. यही। उद्गीथादिक (सामवेदावयवविशेष) है 'महिधियोयोनः' नकारसे परे जो विसर्ग है तिसको मकारसें परे जोडनेसें 'नमः' होनेसें । सन्मंत्र है। तदन्तःसन्मंत्रो वर्ण्यतेति । इत्यादि वचन प्रमाणसें । तथा। ' वरेण्यं' वकारस्थित अकार और रगत (रकारमें रहे) एकारको-अ+ए ऐदौचसूत्रकरके 'ऐ' कारके हुए ‘ण्यं' ण्यकारमें स्थित बिंदुको ऐकारके साथ जोडनेसे वाग्वीज “ ऐं” सिद्ध होता है. । 'अधीमहि' अर्हत्पक्षके व्याख्यानमें 'इः' नाम कामका कथन करा है, इसवास्ते स्मरबीज श्रीबीजादि अक्षरोंके संयोग श्री पद्मावती त्रिपुरादि देवताराधन महामंत्रसिद्धिके निबंधन होते हैं, इसप्रकारसें विद्वानोंको अपनी बुद्धिके अनुसार कहना योग्य है । स यौगिक येह अर्थ है, जेकर ऐसें कहोगे तो कौन कहता है? कि, सयौगिक नहीं है. क्योंकि, सर्वही महामंत्र सयौगिक ही है. तथाचाधीयते । “ अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् । अधना पृथिवी नास्ति संयोगाः खलु दुर्लभाः॥१” ॥ भावार्थः ॥ विना मंत्रके कोई अक्षर नहीं है, विना औषधिके कोइ जडी नही है, विना धनके कोई पृथिवी नही है, परंतु निश्चय उनोंका संयोग दुर्लभ है. ॥ ऐसें रक्षादि यंत्र भी जैसें तीन मायावीज है । तिनके ऊपर यंत्रका न्यास करिये है, सो वशीकरणयंत्र है. । तथा तैसें वश्यादि प्रयोग भी इहां जानने । जैसे भर्गोशब्दसें गोरोचन । 'महि' मनःशिल। 'देव' 'प्रचोदयात् ' दकारसें दल (पत्र) इनोंकरके । “सवितुः' विशब्दसें विशेषक विलेपन वा।'यो' योशब्दसें विशेष योनिमती स्त्रीयोंको । 'नः' नः शब्दसें पुरुषोंको प्रीति
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