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तत्त्वनिर्णयप्रासादसो " ण्यंतात् क्विपि णिलुकि " ' योन् ' संसार, तस्मात् 'योनः' संसार समुद्रसे (प्रचोदय) पार होनेवास्ते हमको प्रेरणा कर, कामक्रोधादि ध्वंसनपूर्वक हमकों मुक्तिको प्राप्त कर इत्यभिप्रायः। 'योनः प्रचोदय' इसके कहनेसे कामादिका ध्वंसही अर्थापन्न मुक्तताका जानना, परंतु धनका नही; मुक्तताविषे अंतरीय ध्वंस होनेसें.। 'धीमहि धियः' इसकरकेही सिद्ध था, ऐसे न कहना. क्योंकि, मुत्यर्थिपुरुषको प्रथम कामादिका विजय करना चाहिये, ऐसे उपायउपेयभाव जनावनेसें दोष नही है.। तथा। (अत् ) इसका अर्थ सौगत (बौद्ध) पक्षवत् जानना। इति सर्वदर्शनसम्मत मंत्रव्याख्या ॥८॥ __ अथ यह गायत्री सर्व बीजाक्षरका निधान है, ऐसे ब्राह्मणोंके प्रवादको आश्रित्य हो कर कितनेकमंत्राक्षरोंके बीजोंको दिखाते हैं.।तद्यथा॥ ॐ ॥ ऐसा बीजाक्षर अक्षपादके पक्षमें संक्षेपमात्रसे प्रभावसहित दिखाया है सो ही जान लेना.। और तहां। भर्गोदे। इसकरके ध्यान करनेकी अपेक्षा वर्णका सूचन है, सोही दिखाते हैं.। 'भर्ग ' ईश्वर, तिसकरके श्वेतवर्ण। शांतिक पौष्टिकादिमें। 'उ' ब्रह्मा, पीतवर्ण। स्तंभनादिमें । पीत और रक्तको कवियोंकी रूढिसें एकता होनेसें रक्तका भी ग्रहण करना। वशीकरण आकर्षणादिमें ।' द ' कृष्ण, तिसकरके कृष्णवर्ण। विद्वेष उच्चाटन अवसानादिमें ॥ इत्यादि और भी इस वीजाक्षरका प्राणधानविधि यथागुरुसंप्रदायसें जानना. ॥ यदि वा।'ॐ' इसकरके । “ वद्दकला अरिहंता निउणा सिद्धा य लोढकलसूरी । उवष्भाया सुद्धकला दीहकला साहुणो सुहया। १।” इस गाथोक्तरहस्यकरके परमेष्ठिपंचक ही महानंदार्थि पुरुषको ध्यावने योग्य है. ॥ अथवा। 'भूः” पृथिवीतत्त्व 'भुवः' वायु, और आकाश, तिनमें 'भु' वायुतत्त्व और 'व' आकाशतत्त्व 'स्वर' उप्रलोक मुखमस्तकरूप तिसको तनोति प्राप्त होवे, सो 'वस्तत् ' जल और अग्नि । न्याय इनका ॥ " तत्वपंचकमिदं विधियोगात् स्मर्यमाणमघजातिविघाति। कल्पवृक्ष इव भक्तिपराणां पूरयत्यभिमतानि न कानि। १” भावार्थ:-यह पांच तत्त्व विधियोगसें (अर्ह
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