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तत्त्वनिर्णयप्रासादरेण्यं भर्गः तद्वयं धीमहि तस्य धारणं वयं कुर्वीमहि । हे भगवन् ! यः सविता देवः परमेश्वरः स भवान् अस्माकं धियः प्रचोदयादित्यन्वयः॥ हे परमेश्वर! आपका जो शुद्धखरूप ग्रहण करनेके योग्य जो विज्ञानस्वरूप उसको हम लोग सब धारण करें, उसका धारणज्ञान उसके ऊपर विश्वास
और दृढ निश्चय हम लोग करें, ऐसी कृपा आप हम लोगोंपर करें, जिस्से कि, आपके ध्यानमें और आपकी उपासनामें हम लोग समर्थ होय; और अत्यंत श्रद्धालु भी होंय. जो आप सविता और देवादिक अनेक नामोंके वाच्य अर्थात् अनंत नामोंके अद्वितीय जो आप अर्थ हैं नाम सर्वशक्तिमान् सो आप हम लोगोंकी बुद्धियोंको धर्म विद्या मुक्ति और आपकी प्राप्तिमें आपही प्रेरणा करें कि, बुद्धिसहित हम लोग उसी उक्त अर्थ में तत्पर और अत्यंत पुरुषार्थ करनेवाले होंय. इस प्रकारकी हम लोगोंकी प्रार्थना आपसे है, सो आप इस प्रार्थनाको अंगीकार करैं; यह संक्षेपसें गायत्री मंत्रका अर्थ लिख दिया, परंतु उस गायत्रीमंत्रका वेदमें इसप्रकारका पाठ है ॥“ॐभूर्भुवःस्वः॥ तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्यधीमहि॥ धियोयोनः प्रचोदयात् ॥ इति ॥ तथा सन १८८९ ई० के छापेके सत्यार्थप्रकाश, और संस्कारविध्यादिग्रंथों में भी, प्रायः इसीतरेंका अर्थ लिखा है; परंतु किसी २ स्थानमें फरक भी मालुम होता है ॥ - इन पूर्वोक्त अर्थोंसे सिद्ध होता है कि, वेदपुस्तक, और वेदोंके अर्थ ईश्वरोक्त नहीं है; किंतु, ब्राह्मण ऋषियोंकी स्वकपोलकल्पना है; परस्पर विरुद्ध होनेसें.
तथा ऋग्वेदका भाष्य सायणाचार्यके भाष्यविना कोई भी प्राचीन भाष्य इस देशमें सुनने में नही आता है। और जो ऋग्वेदादिका रावणभाष्य सुनने में आता है, और तिसका करनेवाला वो रावण था कि, जिसकों श्रीरामचंद्र लक्ष्मणजीने मारा था. यह कथन तो, महा मिथ्या है. क्यों कि, श्रीरामचंद्रजी तो श्रीकृष्णजीसे लाखों वर्ष पहिला होगए है, और वेदोंकी संहिता तो श्रीकृष्णजीके समयमें व्यासजीनें ऋषियों पाससे सर्वश्रुतियां लेके एकत्र करके बांधी, तिसका नाम वेदसंहिता
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