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तत्त्वनिर्णयप्रासादकरना चाहिये' इस वचनके कहनेमात्रसेंही, अधोगतिको प्राप्त हुआ तो, जो लोक वेदशास्त्र और धर्मके नामसें दीन अनाथ निराधार बकरे गाय घोडे आदि पशुओंको यज्ञमें हवन करके निर्दय हो कर यज्ञशेषको खाते हैं, वा खाते थे, उन विचारोंकी क्या गति होगी ? अपशोस !!! कोइ नही विचारते हैं कि, आस्तिकनास्तिकके क्या क्या लक्षण है ?
पूर्वपक्षः-आपका कहना तो ठीक है, परंतु महाभारत जिसको हम लोग पांचमा वेद मानते हैं, तिसमें ऐसा लेख है ॥
पुराणं मानवो धर्मः सांगो वेदश्चिकित्सितम् ॥
आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हंतव्यानि हेतुभिः ॥ अर्थः-पुराण, मनुस्मृति, षडंगवेद अर्थात् ऋग्, यजु, साम, अथर्व, यह चार वेद; और शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, निरुक्त, यह षडंग; तथा सुश्रुतचरकादि चिकित्साशास्त्र, ये सर्व आज्ञासिद्ध हैं. अर्थात् जो कुछ इनमें लिखा है, सो सर्व सत्य २ करके मान लेना, परंतु इनको युक्तिप्रमाणोंसें खंडित न करना इति ॥
उत्तरपक्षः-वाहजीवाह !! क्याही काबुलके उल्लूयोंके घोडेका अंडा है ! जिसकी किसीसें भी परीक्षा न करानी, और न किसीको दिखलाना (१) जैनोंका तो, इस पूर्वोक्त भारतके कथन उपर यह कहना है. ॥
अस्तिवक्तव्यता काचित्तेनेदं न विचार्यते ॥ निर्दोषं काञ्चनं चेत्स्यात् परीक्षाया बिभेति किम् ॥१॥ अर्थः-जो लोग यह कहते हैं कि, अमुक २ ग्रंथ आज्ञासिद्ध है, तिसको प्रमाणयुक्तिसे विचारना नही; किंतु तिन ग्रंथोंमें जो लिखा है.
(१) सुनते हैं कि, कितनेक काबुली दिल्ली शहरमें आये थे,वहां उन्होंने पेठेका फल देखा, उस बडे फलकों देखके पूछने लगे कि, यह क्या है ! तब उन उल्लूयों को देखके फलवालेने कहा, यह घोडेका अंडा है, तब उन्होंने पूछा इसमेसें कैसा घोडा निकलता है! फलवालेने कहा, दरीयाइ घोडा निकलता है, तब उन्होंने मूल्य देके घोडेका अंडा मानके पेठा (कुष्मांडविशेष) फल ले लिया. फलवालेने कहा, खांसाहब! इस अंडेको जमीन ऊपर नही रखना, और किसीको दिखाना नहीं यदि वोक्त काम करोगे तो, तुमारा अंडा गल जायगा!!! इत्यादि ।
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