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तत्त्वनिर्णयप्रासादइस मंत्रकरके ग्रंथि खोलके धर्मागारमें दंपतीको लेजाके सुसाधु (गुरु) को वंदना करवावे, और साधुयोंको निर्दोष भोजन वस्त्र पात्रादि दिलवावे. ॥ इति गर्भाधानसंस्कारविधिः॥
तदपीछे स्वकुलाचारयुक्तिकरके कुलदेवता, गृहदेवता, पुरदेवतादि पूजन जानना.। यहां जो कहा है कि, जैनवेदमंत्र; सो कथन करते हैं. यथा आदिदेव (ऋषभदेव) का पुत्र, अवधिज्ञानवान्, आदिचक्री, भरत राजा, श्रीमदादिजिनरहस्योपदेशसें प्राप्त किया है सम्यक् श्रुतज्ञान जिसने-सो भरतराजा-सांसारिक व्यवहारसंस्कारकी स्थितिकेवास्ते, अर्हन्की आज्ञा पाकरके, धारे हैं ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रय, करणा करावणा अनुमतिसें त्रिगुणरूप तीनसूत्र-मुद्राकरके चिन्हितवक्षःस्थलवाले ब्राह्मणोंको माहनोंको पूज्यतरीके मानता हुआ, और तिस अवसरमें अपनी वैक्रियलब्धिसें चार मुखवाला होके, चार वेदोंको उच्चारण करता भया. तिनके नाम-संस्कारदर्शन १, संस्थापनपरामर्शन २, तत्त्वावबोध ३, विद्याप्रबोध ४, । सर्व नयवस्तु कथन करनेवाले इन चारों वेदोंको, माहनोंको पठन करता हुआ.। तदपीछे वह माहन, सात तीर्थंकरोंके तीर्थतक अर्थात् चंद्रप्रभतीर्थकरके तीर्थतक सम्यक्त्वधारी रहें, औरआईतश्रावकोंको व्यवहार दिखाते रहें, तथा धर्मोपदेशादि करते रहें. । तदपीछे नवमे तीर्थंकर श्रीसुविधिनाथपुष्पदंतके तीर्थके व्यवच्छेद हुए, तिस बीचमें तिन माहनोंने परिग्रहके लोभी होके, स्वच्छंदसें तिन आर्यवेदोंकी जगे कुछक सुनी सुनाइ बातों लेके नवीन श्रुतियां रची, तिनमें हिंसक यज्ञादि और अनेक देवतायोंकी स्तुति प्रार्थना रची (क्रमसें ऋग्, यजुः , साम, अथर्व, नाम कल्पना करके, मिथ्यादृष्टिपणेको प्राप्त करें) तब व्यवहारपाठसें पराङ्मुख अर्थात् परमार्थरहित मनःकल्पित हिंसक यज्ञप्रतिपादक शास्त्रोंसे पराङ्मुख, ऐसे श्रीशीतलनाथादिके साधुयोंने तिन हिंसक वेदोंको छोडके, जिनप्रणीत आगमकोही प्रमाणभूत माने. । तिन ब्राह्मणोमेंसें भी, जिन माहनोंने (ब्राह्मणोंने ) सम्यक न त्यागन करा, अर्थात् जे माहन पुनः तीर्थंकरोके उपदेशसे
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