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तत्त्वनिर्णयप्रासादइस व्युत्पत्तिसें सर्वातिशयत्व कहिये है ॥ ४॥'जनः' जनयतीति जनः सकलवस्तुयोंका कारण कहिये है ॥५॥ तपः' सर्व तेजोरूपत्व ॥६॥ 'सत्यम् ' सर्वबाधारहित ॥७॥ यह तात्पर्य है कि-जो इस लोकमें सद्रूप है सो सर्व ॐकारका वाच्यार्थ ब्रह्मही है, इस आत्माकों सत्चिद्रूप होनेसें । अथ भूआदिक सर्वलोक ॐकारके वाच्य सर्व ब्रह्मात्मक है, तिसमें व्यतिरिक्त कुछ भी नही है. । व्याहृतियां भी सर्वात्मक ब्रह्मकी ही बोधिका हैं। गायत्रीके शिरका भी यही अर्थ है. । 'आपः' व्याप्नोति इस व्युत्पत्तिसें व्यापित्व कहिये है। ज्योतिः' प्रकाशरूपत्व । 'रसः' सर्वातिशयत्व । 'अमृतं' मरणादिसंसारनिर्मुक्तत्व, सर्वव्यापि, सर्वप्रकाशक, सर्वोत्कृष्ट, नित्यमुक्त, आत्मरूप, सच्चिदानंदात्मक, जो ॐकारवाच्य ब्रह्म है, सो मैं हूं ॥ इतिगायत्रीमंत्रस्यार्थः॥ ___ अथ स्वामी दयानंदसरस्वतीजीकृत गायत्रीव्याख्यान लिखते हैं। यथा यजुर्वेदभाष्ये तृतीयाध्याये ॥
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॥
धियोयोनः प्रचोदयात् ॥३५॥ पदार्थः-हम लोग । (सवितुः ) सब जगतके उत्पन्न करने वा । (देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध, वा सुख देनेवाले परमेश्वरका जो। (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (भर्गः) पापरूप दुखोंके मूलको नष्ट करनेवाला (तेजः) स्वरूप है । (तत्) उसको । (धीमहि) धारण करें, और । (यः ) जो अंतर्यामी सब सुखोंका देनेवाला है, वह अपनी करुणाकरके । (नः) हम लोगोंकी । (धियः) बुद्धियोंको उत्तम २ गुणकर्मस्वभावोंमें । (प्रचोदयात्) प्रेरणा करें ॥ ३५॥ __ भावार्थः-मनुष्योंको अत्यंत उचित है कि, इस सब जगतके उत्पन्न करने वा सबसे उत्तम सब दोषोंके नाश करनेवाले तथा अत्यंत शद्ध परमेश्वरहीकी स्तुति प्रार्थना और उपासना करें. । किस प्रयोजनकेलिये ? जिससे वह धारण वा प्रार्थना किया हुआ, हम लोगोंको खोटे २ गुण
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