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तत्त्वनिर्णयप्रासादइंद्रियां जिसके, सो गोदेव तिसका अर्थात् जितेंद्रियका। नही गोविधेयता कवियोंके रूढि नहीं है, अपितु है. 'गोरिवेति विधेयतामित्यादि' लक्ष्यके देखनेसें 'धीम' इसका व्याख्यान प्रथम कर दिया है । (हि)। स्फुटार्थे है । ( धियोयो ) हे बुद्धितत्त्वसें पृथग्भूत ! प्रकृतिपुरुषका विवेक पृथक्पणा देखनेसें, प्रकृतिके निवृत्त (दूर ) हुआ पुरुषका जो अपने स्वरूपमें अवस्थान ( रहना ) है सो मोक्ष है इसवचनसें । प्रकृतिके वियोगसें बुद्धिआदिकोंका भी विगम ( नाश ) होनेसें. क्योंकि, कारणके अभावसें कार्यका भी अभाव होता है. । 'धियः' इस पंचम्यंत पदको पुनरावृत्तिकरके 'प्रचोदय' इसपदके साथ संबंध करिये हैं, तब तो 'धियः' वुद्धितत्त्वसे ( नः) अस्मानपि हमको भी (प्रचोदय) प्रेरय व्यपनय-दूर कर इत्यर्थः । अथवा 'धियः' षष्ठ्यंतपद जानना, और षष्ठीविभक्ति जो है, सो ‘कर्मणि शेषजा' है । यथा माषाणामश्नीयात् । तथा । न केवलं यो महतां विभाषते । तब तो 'नः' हमारी भी ‘धियं प्रकृतिहेतुक बुद्धिको दूर कर।आप मुक्त हो, हमको भी मुक्त करो इत्यर्थः । (अत् ) अद् ऐसा दकारांत अव्यय आश्चर्यार्थमें है, तब तो 'अद्' आश्चर्यरूप, तिसके कारणमें अनिवृत्त होनेसें. । तिसका 'अशब्दका' आमंत्रण हे अद् ! विरामे वा' इस सूत्रकरके दकारका तकार हुआ, तब हे अत्! हे आश्चर्यरूप ! इत्यर्थः ॥ * इति सांख्याभिप्रायतो मंत्रव्याख्या ॥४॥
अथवा वैष्णव अपने देव हरिको नमस्कार करते हुए, यह कहते हैं. ॥ मंत्रः॥
ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेव स्य
धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॥ १॥५॥ ॐ। भूर्भुवःस्वस्तत् । ' अथवा ' भूः। भुवः। स्वस्तत् । सवितुः । वरेण्यं । भगोंदेव । स्य । धीमहि । धियः । यो । अ । नः । प्रचोदयात्॥५॥
* भावार्थ:-हे तीन जगतमें व्यापिन ! हे सर्यसें प्रधान ! हे जितेंद्रियका पोषक ! हे बुद्धितत्त्वको कथन करनेवाला! हे बुद्धितत्त्वसें पृथग्भूत ! हे आश्चर्यरूप कपिल भगवन् ! तूं हमको बुद्वितत्त्वसें दूर कर, तूं आप मुक्त हुआ है, और हमको भी मुक्त कर. इति ॥
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