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प्रथमस्तम्भः। - इस्से भी यही सिद्ध होता है कि, प्राकृत भाषा प्रथम थी. तिस भाषाको समारके रचना करनेसें वेदोंकी संस्कृत रची गई. और जब वेदोंकी संस्कृतकों पिछली व्याकरणोंसें मांजी, तब शुद्ध संस्कृत उत्पन्न भई. इससे यह सिद्ध हुआ कि, वेदोंकी संस्कृतसे पहिले प्राकृत पुस्तक होने चाहिये.
और गुर्जर देशीय मणिलाल नभुभाइ द्विवेदी अपने रचे सिद्धांतसार ग्रंथमें लिखते हैं कि “इस ठिकाणे भाषाशास्त्रीयोंमें बहुत भारी झगडा चलता है. जब, संस्कृत-सुधरी भाषा-ऐसा नाम पड़ा, तब किसमेसें सुधारी यह मालुम करना चाहिये. प्राकृतमेंसें, लोकभाषामेंसें सुधारी; ऐसें कहो तो प्राकृत प्राचीन भाषा होगी, और संस्कृत किसी कालमें सार्वत्रिक बोलाती भाषा न थी ऐसें मानना पडेगा. दूसरा मत ऐसा है, कि प्राकृत भाषा प्राचीन तो खरी, और उसके मिलापवाली वेद भाषामेंसें नवीन भाषा हुई सो संस्कृत; परंतु संस्कृत सार्वत्रिक उपयोगमें नहीं आती थी ऐसा नही. विद्वानो तथा उच्च वर्गके लोक संस्कृतही बोलते थे, और नीचलोक स्त्रीवर्ग इत्यादि प्राकृत बोलते थे. इस उभय पक्षके अनुयायी बहोत हैं; परंतु ज्यादा ख्याल दूसरे पक्ष तरफ है. स्लेगेल, बन्सन, वील्सन, मुर, गोल्डस्टकर, वेबर, बोप, मेक्समूलर वगैरे किसी भी पाश्चात्य पंडितके भाषा संबंधी लेखमें इस वातका विस्तार मिल जायगा."
ऊपर जो लेख लिखे हैं, सो कितनेही ग्रंथ और अनुमानद्वारा लिखे हैं. अब जैनमतके पुस्तकानुसार जो कथन है सो लिखते हैं. प्राकृत
और संस्कृत ये दोनों भाषा अनादि सिद्ध है. तिनमें प्राकृत भाषा तीन तरहकी है. १ समसंस्कृत प्राकृत, २ तज्जा अर्थात् संस्कृत शब्दोंकों प्राकृत शब्दोंका निर्देश करणा. और ३ देशी, अर्थात् प्राकृत संस्कृत व्याकरणोंसें जिसकी सिद्धि न होवे; किंतु अनादिसिद्ध जे शब्द हैं, तिनकों देशी प्राकृत कहते हैं. जैसें श्रीपादलिप्तसूरिविरचित देशीनाम माला और तरंगलोला कथा वगैरे-तथा श्री हेमचंद्रसूरिविरचित देशीनाममाला-परंतु यह नही समझना कि, जो अनेक देशोंके शब्द एकत्र
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