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तत्वनिर्णयप्रासादरंतर (शिवत्वं) शिवपणा, सत्चित्आनंदरूप परम ब्रह्म परमात्मा परम ईश्वरपणा है; और ( शरीरयोगात्) शरीरके योगसे संबंधसेही (उपदेशकर्म) उपदेश कर्म है, अर्थात् देहवाला ईश्वर होवे तबही उपदेष्टा हो सक्ता है; यह दोनो बातें (परस्परस्पर्धि) परस्पर विरोधि (कथं) किसतरें (परोपकृप्तेषु) परवादीयोंके माने हुए (अधिदैवतेषु ) अधिदेवतायोंमें (घटेत) घटती हैं ? अपितु किसी प्रकारसेभी नही घट सक्ती हैं क्योंकि, परवादीयोंने अनादि मुक्तरूप, निरुपाधिक, निरंजन, निराकार, ज्योतिःस्वरूप, एक ईश्वर, सर्व व्यापक माना है, ऐसा ईश्वर किसी प्रकारसेंभी उपदेष्टा सिद्ध नहीं हो सक्ता है. उपदेश करनेके देहादि उपकरणोंके अभावसें. क्योंकि, धर्माधर्म, अर्थात् पुण्य पापके विना तो देह नहीं हो सक्ता है, और देह विना मुख नहीं होता है, और मुख विना वक्तापणा नहीं है, व्याकरणके कथन करे स्थान और प्रयत्नोंके विना साक्षर शब्दोच्चार कदापि नहीं हो सकता है, तो फेर देहरहित, सर्वव्यापक, अक्रिय परमेश्वर, किसतरें उपदेशक सिद्ध हो सकता है?
पूर्वपक्ष:-परमेश्वर अवतार लेके, देहधारी होके, उपदेश देता है.
उत्तरपक्षः-परमेश्वरके मुख्यतीन अवतार माने जाते हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, और येही मुख्य उपदेशक माने जाते हैं, परंतु परवादीयोंके शा. स्त्रानुसार तो ये तीनो देव, राग, द्वेष, अज्ञान, काम, ईर्षादि दूषणोंसें रहित नही थे; तो फेर, ईश्वर, अनादि, निरुपाधिक, सदा मुक्त, सदाशिव, कैसें सिद्ध होवेगा? और सर्वव्यापी ईश्वर, एक छोटीसी देहमें किसतरें प्रवेश करेगा? पूर्वपक्षः-हम तो ईश्वरके एकांशका अवतार लेना मानते हैं.
उत्तरपक्षः-तब तो ईश्वर एक अंशमें उपाधिवाला सिद्ध हुआ, तब तो ईश्वरके दो विभाग हो गए, एक विभाग तो सोपाधिक उपाधिवाला, और एक विभाग निरुपाधिक उपाधिरहित.
पूर्वपक्षः-हां हमारे ऋग्वेद और यजुर्वेदमें कहा है कि, ब्रह्मके तीन हिस्से तो सदा मायाके प्रपंचसे रहित, अर्थात् सदा निरुपाधिक है, और एक चौथा हिस्सा सदाही उपाधिसंयुक्त रहता है,
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