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दशमस्तम्भः।
२७५ ९४-सरस्वती अश्विनीकुमारकी स्त्री होके, इंद्ररूप सुंदर गर्भको धारण करती है.
९५-अश्विनीकुमार और सरस्वतीने वीर्यवत्, पशुओंके संबंधि हविष्लेके, तथा मदिरा, दूध और मधुको लेके इंद्रकेवास्ते दूध स्रावित करते हुए. तथा मदिरा और दूधसे अमृतरूपवाले, और ऐश्वर्य देनेवाले सोमको दोहन करते भए. ऐसें जिन सरस्वति और अश्विनीकुमारोंने नाना द्रव्योंसें नाना रस ग्रहण करके इंद्रकेवास्ते उपकार करा, तिन सौत्रामणीके *द्रष्टाओंकेतांइ नमस्कार होवे-इति ॥
पूर्वोक्त सर्व वृत्तांत महीधरकृत वेददीपकभाष्यके अनुसार लिखा है. अब वाचकवर्गको विचार करना चाहिये कि, इसमें ईश्वरप्रणीत तत्त्वज्ञान कौनसा है ? यह तो निःकेवल युक्तिप्रमाणबाधित अप्रमाणिक अज्ञानीयोंकी स्वकपोलकल्पना है. तथा इन श्रुतियोंको देखके, डा०मोक्ष मूलरका कहना-वेदोंका कथन ऐसा है, जैसा कि अज्ञानीयोंके मुखसे अकस्मात् वचन निकले होवे-सत्य २ प्रतीत होता है. तथा
यां मेधां देवगणाः पितरोपासते॥ तया माम॒द्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ॥१४॥ मेधां मे वरुणो ददातु मेधाम॒ग्निः प्रजापतिः॥ मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा॥१५॥
यजुर्वेदाध्याय ३२॥ इन श्रुतियोंका भावार्थ यह है कि-हे अग्ने! देवसमूह, और पितृगण (पितर) जिस बुद्धिकी उपासना (पूजा) करते हैं, तिस बुद्धिकरके आज मुझकों बुद्धिवाला कर; अर्थात् देवपितृमान्य बुद्धि हमारी भी होवे.। वरुण, अग्नि, प्रजापति, इंद्र, वायु और धाता, ये मुझे बुद्धि देवे।
* सौत्रामणी, यज्ञविशेष है, जिसमें ब्राह्मणोंको भी सुरा ( मदिरा ) पानकी आज्ञा लिखी हैसौत्रामण्यां सुरांत् ' पिबेइति श्रुतिः- ॥
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