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है ? या पुरुषको क्या तो नहीं, परंडा होती है, तसतको
ર૭૮
तत्त्वनिर्णयप्रासादगप्पाष्टकरूप अर्थ श्रुतियोंके करे हैं, तैसे अर्थ आजतक प्रायः किसी भी मतवालेने नही करे हैं.
पूर्वपक्षः--दयानंदसरस्वतीजीके अर्थ, वा प्राचीन वेदभाष्यकारों के अर्थ, वा वेदग्रंथ, जैनी प्रमाणभूत नहीं मानते हैं. क्योंकि, जैनमतवाले तो वेदोंकोही हिंसकशास्त्र और अज्ञोंकी कल्पनारूप मानते हैं. तो दयानंद सरखतीजीने गप्पाष्टकरूप अर्थ लिखे हैं, इसमें आपको क्या दुःख है ? यदि गर्दभ (गधा) किसीके द्राक्षामंडपको खावें तो, रस्ते चलनेवाले माध्यस्थ पुरुषको क्या दुःख है ?
उत्तरपक्षः--दुःख तो नही, परंतु यह काम अयोग्य, है; इसवास्ते माध्यस्थके मनमें भी किंचिन्मात्र पीडा होती है. तैसेंही दयानंद सरस्वतीजीने प्राचीन चलते हुए वेदार्थोंको भ्रष्ट करे हैं, तिनको देखके माध्यस्थ पुरुषोंको भी दयानंदसरखतीजीकी बालक्रीडा देखके मनमें दया आती है कि, इस बिचारेके कैसा मिथ्यात्वमोहनीय कर्मका दृढ उदय हुआ है कि, जिससे तिसने कैसा अज्ञानरूप नाटक रचा है !!! और तिसको देखके, कितनेही जीव मोहित होके गाढ मिथ्यात्वके वश होगये हैं. दयानंदसरखतीजी तो, अज्ञानरूप नाटक रचके चले गए; परंतु तिनके मतवालोंकी मट्टी खराब, सनातनधर्मादिवाले कर रहे हैं; तिसका दयानंदसरस्वतीजीको तो दुःख नही, परंतु पंडित भीमसेनादिके गलेमें उस्त्रयोंकी माला पडी है, सो देखिए कैसे निकालते हैं !!
तथा दयानंदीयोंको मृषा बोलना तो बहुतही प्रिय है, जैसे संवत् १९५१ मेंही इलाहबादका पायोनीयर पत्रमें बडीभारी गप्प छपवाइ है-एक दयानंदसरखतीजीकी विद्या पढनेवालेने छपवाया है कि, ऋग्वेदका भाष्यकार सायणाचार्य तो जैनमती था, तिसने तो वेदोंके सच्चे अर्थ, तथा वेदोंके नाश करनेवास्ते जानबूझके वेदोंके अर्थ विपर्यय लिखे हैं, इसवास्ते तिसका करा भाष्य हमको प्रमाण नही है-अब वाचकवर्गो! तुम विचार करो कि, दयानंदीयोंके बिना ऐसी अनघड गप्प कोइ मार सक्ता है ? दयानंदसरखतीजीके रचे पुस्तकोंके, वाचनेका यही रहस्य है
इसवास्तेवार करो कि, दयानजीके रचे पुस्तकांव
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