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अष्टमस्तम्भः। ऐसा कहते हैं. ॥ परीक्षा ॥ जब प्रलयदशामें भूत भौतिक जगत् अज्ञानरूप तमःकरके आच्छादित था, तब तो भूत भौतिक जगत् विद्यमान सिद्ध होता है. क्योंकि, कोइ वस्तु ढांकणेसे अभावरूप नही होती है, तब तो ब्रह्मने प्रलयकरके आपही आपना सत्यानाश करा. जैसे कोई पुरुष नानाप्रकारकी क्रीडारंग विनोद भोग विलासादि करता हुआ, एकदम अपना सर्व ऐश्वर्य नाशकरके आंखोंके आगे पट्टी बांधकर किसी अंधकारवाली पर्वतकी गुफामें जा पडे तो, तिसकों अवश्यमेव मूर्ख कहना चाहिए. क्योंकि, जिसकों अपने आपके हितकी इच्छा नहीं है, तिससें अधिक अन्य कौन पुरुष मूर्ख है ? कोइ भी नही है.किंच पुरुष तो, किसी पर्वतकी गुफामें जा पडा है, परंतु सृष्टि संहारकरके ब्रह्म अज्ञानाच्छादित होके किस स्थान में रहता था ? क्योंकि, प्रलयदशामें आकाश तो था नहीं; और विना आकाशके कोइ जड चेतन वस्तु रह नही सक्ती है. और विना आकाशके वस्तुका रहना मानना यह युक्तिप्रमाणसें विरुद्ध है, प्रेक्षावान् कदापि नहीं मानेंगे. प्रलय करेनेसें तो जगत् संहारी होनेसें ब्रह्मात्माकों निर्दय और आत्मघाती कहना चाहिए; और प्रलय न करे तो, ब्रह्मकी कुछ हानि नहीं है, और सृष्टि न करे तो भी कुछ हानि नही है, तो फेर, विनाप्रयोजन पूर्वोक्त काम करनेसें कौन बुद्धिमान् परमात्माकों सर्वज्ञ कृतकृत्य वीतराग करुणासमुद्र इत्यादि विशेषणोंवाला मान सक्ता है ? जेकर परमात्मा सृष्टि न रचे तो, इसमें उसकी क्या हानि है ?
पूर्वपक्षः-जेकर ईश्वर सृष्टि न रचे तो, जीवोंके करे शुभाशुभ कर्मोंका फल जीवोंके भोगने में क्यों कर आवे ?
उत्तरपक्षः--जेकर ईश्वर जीवोंके कर्मोंका फल न भुक्तावे तो, ईश्वरकी क्या हानि होवे ? क्योंकि तुमारे मतमूजब जीव आपले कर्मोका फल भोग सक्तेही नही, और ईश्वर सृष्टि रचे नही, तब तो बहुतही अच्छा काम होवे, न तो जीव पूर्वकर्मका फल भोगे, और न नवीन शुभाशुभ कर्म आगेंकों करे, सदा काल प्रलयदशामेंही परमानंदकों ब्रह्मानंदमें लय होके भोगा करे. क्योंकि, उपनिषदोंमें लिखा है कि, सुषुप्तिमें आत्मा ब्र
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