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नवमस्तम्भः।
२३१ और संपूर्ण व्युष्ठी अर्थात् समृद्धियें तथा ( सर्वाणि च भूतानि स्थावरजंगमान्यन्वभवत् ) संपूर्ण जो भूत है स्थावरजंगमादि तिनको अनुभव अर्थात् उत्पन्न करते भये इति ॥
[समीक्षा ] यह कथन ऋग्वेद यजुर्वेद दोनोंसें विरुद्ध है. तथा इसमें लिखा है, ब्रह्माजी ब्रह्मचर्य धारण करते भए, ब्रह्माजीने जो ब्रह्मचर्य धारण करा तिससे पहिले क्या ब्रह्माजीके ब्रह्मचर्य नही था ? क्या ब्रह्माजी स्त्रीयोंसे भोग विलास विषय सेवन करते थे ? वा अन्यकोइ कुचेष्टा करते थे? जिससे ब्रह्माजी ब्रह्मचारी नहीं थे, जो पीछेसें ब्रह्मचर्य धारण करना पडा. तथा ब्रह्माजीने चिंता करी, पीछे ॐकारको देखा, तिसके देखनेमात्रसेंही जो कुछ रचना था सो सर्व कुछ रच दिया, इत्यादि कथन ऋग्वेद यजुर्वेद इन दोनोंसेंही विरुद्ध है. क्योंकि, पूर्वोक्त वेदोंमें इस कथनका गंध भी नहीं है; इसवास्ते विरुद्ध है. एतावता युक्तिविरुद्ध मिथ्यारूप होनेसें त्याज्य है. ॥ २ ॥
हिरण्यगर्भःसमवर्तताने भूतस्य जातः पतिरेके आसीत् । सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवार्य हविषा विधेम ॥४॥
य० वा० सं० अ० १३ मं० ४ ॥ ( अ )-(हिरण्यगर्भः ) जो कि मनुस्मृति में लिखा है कि ( अप एव ससर्जादौ तासु बीज मवासृजत् ॥ तदण्डमभवद्वैमं सहस्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः इति) उसीका मूलभूत यह मंत्र है सो देखिये (हिरण्यगर्भः) हिरण्य जो सुवर्ण तिसके समान वर्ण है जिसका ऐसा जो पूर्वकालमें उत्पन्न हुआ अंड तिसके गर्भ में स्थित जो ब्रह्मा सो कहा जाय हिरण्यगर्भ अर्थात् प्रजापतिः सो वह ( अप्रे) अर्थात् जगदुत्पत्तिसे पहिले ( समवर्तत) भलीप्रकारसें वर्तमान था. और वही (भूतस्य जातः ) जातः अर्थात् उत्पन्न होकर संपूर्ण भूतप्राणियोंका (पतिरेक आसीत् ) एक आपही (पतिः) अर्थात् पालक होता भया ( सदाधार पृथिवीं द्या मुतेमां ) सो वही पृथिवी अर्थात् अंतरिक्षलोकको और
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