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अष्टमस्तम्भः।
२१७ तो ' नासदासीन्नोसीत् ' इत्यादि यह श्रुति मिथ्या ठहरेगी, और ब्रह्म मुतरूप न ठहरेगी और तीन भाग ब्रह्मके सदा निर्लेप मुक्तरूप, और चोथा भाग मायावान् यह भी सिद्ध नहीं होवेगा क्योंकि, एक भाग शरीरवाला, और तीन भाग शरीररहित, यह युक्तिसें विरुद्ध है; इससे तो ब्रह्मके दो भाग हो गए, तब संपूर्ण ब्रह्म मुक्तरूप सिद्ध न हुआ. और अद्वैतमतकी तो, ऐसी जड कटेगी कि, फेर कदापि न उत्पन्न होवेगी. इसवास्ते अनादिशरीरसंबंधवाला ब्रह्म मानना यह प्रथम पक्ष मिथ्या है. ___ अथ दूसरा पक्ष सादिशरीसंबंधवाला ब्रह्म है, ऐसा मानोंगे, तब तो शरीर भी ब्रह्मने इच्छा पूर्वकही रचा सिद्ध होवेगा, इच्छा मनका धर्म है, और मन शरीरविना नहीं होता है, इसवास्ते इस शरीरसे पहिले अन्यशरीर अवश्य होना चाहिए; तिससे आगे अन्य, इसतरें माननेसें अनवस्थादृपण होवे है, इसवास्ते दूसरा पक्ष भी मानना मिथ्या है. इस कथनसें यह सिद्ध हुआ कि, प्रलयदशामें ब्रह्मके शरीर नहीं है, और शरीरविना मन नही हो सकता है, और मनविना इच्छा नहीं होती है और इच्छाके विना ब्रह्म कदापि सृष्टि नहीं रच सक्ता है.
पूर्वपक्षः-सृष्टि और प्रलय ये दोनों करनेका ईश्वरका स्वभावही है इसवास्ते सृष्टि रचता है और प्रलय करता है. उत्तरपक्षः--एकवस्तुमें अन्योन्य विरुद्ध, दो स्वभाव नहीं रह सक्ते हैं. पूर्वपक्षः--हम तो परस्पर विरुद्धस्वभाव मानते हैं.
उत्तरपक्षः--ये दोनों स्वभाव नित्य है कि, अनित्य है ? ईश्वरसें भिन्न हैं कि, अभिन्न है ? रूपी है कि, अरूपी है ? जड है कि, चेतन है ? जेकर ये दोनों स्वभाव नित्य है, तब तो ये दोनों स्वभाव युगपत् सदा प्रवृत्त होवेंगे, तब तो ईश्वर सदाही सृष्टि रचेगा, और सदाही प्रलय करेगा; तब तो, न सृष्टि होवेगी; और न प्रलय होवेगी. जैसें एक पुरुष दीपक जलाया चाहता है, तब दुसरा पुरुष जलानेके समयमेंही बुजाया करता है, तब तो दीपक न जलेगा, और न बुजेगा. इसीतरें ईश्वरका सृष्टि रचनेका स्वभाव तो सृष्टि रचेहीगा, और ईश्वरका प्रलय करनेका
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