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चतुर्थस्तम्भः।
१४१ व्याहतम्--जहां पूर्वके कथन करके परका कथन बाध्या जावे, सो व्याहत. यथा “कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नास्ति च कर्मणामित्यादि" -कर्मभी है और कर्मोंका फलभी है, परं कर्मोका कर्ता नहीं है. इत्यादि-११॥
अयुक्तम्-जो प्रमाणसे सिद्ध न होवे, यथा “तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः॥प्रावर्त्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनीत्यादि"-तिन हस्तियोंके गंडस्थलसे भ्रष्ट-हुए झरे हुए मदबिन्दुओंकरके हस्ति अश्व रथांको वहा देनेवाली घोर नदी, प्रवर्सती भई-चलती भई इत्यादि-१२।
क्रमभित्रम्-जहां क्रमकरके कथन न होवे, जैसे स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः, और श्रोत्रांके, अर्थ ( विषय ) स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, और शब्द, ऐसे कथनमें स्पर्श, रूप, शब्द, गंध और रस, ऐसे कहना, सो क्रमभिन्न.-१३॥
वचनभिन्नम् -वचनका व्यत्यय होना, यथा वृक्षावेतौ पुष्पिता इत्यादि-१४।
विभक्तिभिन्नम्-विभक्तिका व्यत्यय होना, अर्थात् प्रथमादिविभक्तिके स्थानमें द्वितीयादिका कहना, यथा एष वृक्षमित्यादि-१५॥
लिंगभिन्नम्--लिंगव्यत्यय होना, स्त्रीलिंगादिके स्थानमें पुंलिंगादिका होना, यथा अयं स्वीइत्यादि-१६। __ अनभिहितम्--अपने सिद्धांतमें जो नहीं कहा है, तिसका कथन करना, सो अनभिहित जैसें सप्तम पदार्थ, दशम द्रव्य, वा वैशेषिककों; प्रधान और पुरुषसें अधिक सांख्यमतको; चार सत्यसे अधिक शाक्यको. इत्यादि-१७।
अपदम्-अन्य छंदमें अन्य छंदका कहना, जैसे आर्यापदमें वैतालीय पदका कहना-१८॥
स्वभावहीनम्--जो वस्तुके खभावसें अन्यथा कहना, यथा अग्नि शीतल, मूर्तिमत् आकाश. इत्यादि-१९। ___ व्यवहितम्--जहां प्रकृतको छोडके, अप्रकृतको विस्तार करके कथन करके, फिर प्रकृतका कथन करना.-२०॥
कालदोषः-अतीतादिकालका व्यत्यय करना, जैसें रामचंद्र वनमें प्रवेश करतेभये, इसस्थानमें प्रवेश करतेहैं. इत्यादि-२१॥
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