________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
तत्त्वनिर्णयप्रासादहाथीमारणादिक,(अहिंस्र) हरिणादिक, (मृदु) दयाप्रधान विप्रादि, (क्रूर)क्षत्रियादिकोंको, (धर्म) जैसें ब्रह्मचर्यादि, (अधर्म) जैसें मांसमैथुनादि सेवन करना, सत्य बोलना, असत्य बोलना, सृष्टिकी आदिमें प्रजापति जिसमें जो कर्म स्थापन करता भया, सो कर्म पीछेसें अदृष्टवशसे स्वयमेवही प्राप्त होता भया. ॥२९॥ इस अर्थमें दृष्टांत कहते हैं, जैसे वसंतादिऋतुयोंमें ऋतुके चिन्ह आम्रमंजरीआदि स्वकार्यावसरमें आपही प्राप्त होते है, तैसेंही जीवोंकों हिंस्रादि कर्म जानने. ॥३०॥ भूलोकोंके बहुतवास्ते मुख, बाहु, ऊरु, पगोंसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रोंको यथाक्रम निर्मित करता भया. ॥ ३१ ॥ सो ब्रह्मा निज देहके दो खंड करके एक खंडका पुरुष बना, और दूसरे खंडकी स्त्री बनी, तिस स्त्रीविषे मैथुन धर्म करणेसें विराट्नामा पुरुषको निर्मित करता भया. ॥३२॥ सो विराट् तपकरके जो निर्माण करता भया, तिस वस्तुको मुझकों बतलाउं; हे द्विजोत्तम! इस सर्वजगत्के रचनेवालेकों. ॥३३॥ में प्रजाकों सृजन करनेकी इच्छा करता थका सुदुश्चर तप तपके दश प्रजापतियोंकों प्रथम सृजन करता भया. क्योंकि, तिनोंकरके प्रजा सृजमान होनेसें. ॥३४॥ मरीचि १, अत्रि २, अंगिरस ३, पुलस्त्य ४, पुलह ५, ऋतु ६, प्रचेतस ७, वसिष्ठ ८, भृगु ९, और नारद १०.॥३५॥ येह मरीचिआदि दश बडे तेजवाले अन्य सप्त परिमाणरहित मनुयोंकों देवतायोंकों ब्रह्मके सृजन करे हुए देवनिवास स्थानक वर्गादिकोंको और महाऋषियोंकों सृजन करता भया, यह मनुशब्द अधिकारवाची है, इसवास्ते चौदह मन्वंतरोंमें जिसकों जहां सर्गादिका अधिकार है, सो इस मन्वंतरमें स्वायंभुव स्वारोचिषानामोंकरके मनु कहा जाता है. ॥ ३६ ॥ यक्ष, वैश्रवण, राक्षस, तिसके अनुचर रावणादि, पिशाच, गंधर्व, अप्सरस, असुर, नाग, सर्प, गरुड, पित्रोंकों इनकों पृथक् २ रचता भया. ॥ ३७॥ विजली, अशनि, मेघ, इंद्रधनुः, उल्का सप्रकाशरेखा, भूमि अंतरिक्षमें, निर्घात उत्पातध्वनि, केतू तारा, अन्य ज्योतिषि ध्रुव अस्तादि नाना प्रकारके रचता भया. ॥ ३८ ॥ किन्नर, वांदर, मत्स्य, नानाप्रकारके पक्षियोंको, पशु मृग मनुष्योंकों, व्याल
For Private And Personal