________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
२०८
तत्त्वनिर्णयप्रासाद
पूर्वपक्ष:-- हम तो सत् असत् दोनों पक्षोंसें विलक्षण तीसरा अनिर्वाच्य पक्ष मानते हैं, इसवास्ते श्रुतिका कथन सत्य है.
उत्तरपक्षः -- यह जो तुम अनिवार्यत्व मानते हो तो, इसके अक्षका यह अर्थ होता है; निस्शब्द प्रतिषेधार्थमें है, सो प्रतिषेध, या तो भावका होना चाहिये, वा अभावका नकारप्रतिषेध भी, या तो भावका निषेध करेगा, या अभावका. तब तो, अनिर्वाच्यत्वका अर्थ भी भाव, वा अभाव सिद्ध होवेगा; तो फेर अनिर्वाच्यत्व कहनेसें भाव, वा अभावसें अधिक कुछ भी नहीं सिद्ध होता है, इसवास्ते माया, या तो सत् माननी पडेगी, वा असत् माननी पडेगी.
पूर्वपक्ष:-- प्रतीतिके जो अगोचर होवे, तिसकों हम अनिर्वाच्यत्व कहते हैं.
उत्तरपक्षः --- प्रलयदशामें सो प्रतीति अगोचर था, जो जीवोंके प्रती ति अगोचर था कि, ब्रह्मके प्रतीति अगोचर था ? प्रथम पक्ष तो संभव होही नहीं सक्ता है; क्योंकि, प्रतीति करनेवाले जीव तो तिस प्रलयदशामें विद्यमानही नही थे तो, प्रतीति गोचर वा अगोचर किसकी अपेक्षा कहने में आवे ? जेकर ब्रह्मके प्रतीति अगोचर था, तब तो माया, वा जगत्का कारण, खरशृंगवत् एकांत असतूरूप हुआ. तब तो, तिससें जगत् उत्पत्ति त्रिकालमें भी नही होवेगी. जेकर ब्रह्मके प्रतीति गोचर है, तब तो माया, सत्स्वरूपवाली सिद्ध होवेगी, तिसके सिद्ध होनेसें अद्वैत ब्रह्म त्रिकालमें भी सिद्ध नही होवेगा; इसवास्ते, 'नासदासीन्नोसदासीत्' यह कहना युक्तिसें बाधित है. तथा 'आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् ॥ ' सदेव सौम्येद मग्र आसीत् ॥ इन दोनों श्रुतियोंसें यह सिद्ध होता है कि, जगत् उत्पत्तिसे पहिले आत्मा, अर्थात् ब्रह्मही एकला था, अन्य कुछ भी नही था. ॥ तथा हे सौम्य ! सत्ही यह आगे था, अन्य कुछ भी नही था ! प्रथम तो ऋग्वेदकी पूर्वोक्त श्रुतिसें ये दोनों श्रुतियों विरुद्ध मालुम होती हैं. क्योंकि, इन दोनों श्रुतियोंसें तो, विना एक ब्रह्मात्मा सत्स्वरूपसें अन्य कुछ भी नही था, ऐसा सिद्ध होता है. तब तो माया, अपरनाम जगत् उत्पत्तिका कारण, कदापि सिद्ध नही होवे -
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal