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तत्त्वनिर्णयप्रासादकालके जाल बनाता है, ऐसेंही. सत्स्वरूप ब्रह्म, अपने आपहीमेंसे इस जगत्का उपादान कारण निकालके तिससेंही यह जगत् रचना करता है.
उत्तरपक्षः- हे प्रियवर ! यह जो और्णनाभि-मकडीका दृष्टांत दिया है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि, और्णनाभि-मकडी जो है, सो केवल चैतन्य नहीं है, किंतु तिसका चैतन्यस्वरूपवाला जीव शरीररूप जड उपाधिवाला है, मनुष्यशरीरवत्; इसवास्ते, सो जंतु जो कुछ शरीरद्वारा आहार करता है, सो तिसके शरीरके अंदर चेप मलमूत्रादिपणे परिणमता है, मनुष्यके आहार करणेसें वात पित्त कफ मल मूत्र लालादिवत् तथा और्णनाभीने जो जाला रचा है, तिसका उपादान कारण और्णनाभि नहीं है, किंतु जालेका उपादानकारण और्णनाभिके शरीरमें जो चेपादि वस्तु है, सो है; इससे यह सिद्ध हुआ कि, ब्रह्मात्माके अन्य कुछक जडचैतन्यवस्तुयों थी, जिन उपादान कारणोंसें जडचैतन्यकार्यरूप संसार-- रचा. परंतु ब्रह्मनें स्वयमेवही जगतरूपकों धारण स्वीकार नहीं करा, ऐसें मानोंगे, तब तो अद्वैतकी हानी होवेगी. इसवास्ते, औनाभिका दृष्टांत भी असंगत है.
तथा जब प्रलयदशा होती है तब केवल एकही ब्रह्म होताहै ? वा माया और ब्रह्म ये दो होते हैं ? वा मायाकरके अव्याकृत ब्रह्म, अर्थात् माया और ब्रह्म क्षीरनीरकीतरें अपृथकपणे मिश्रित होते हैं ? प्रथमपक्षमें तो शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंद, अक्रिय, कूटस्थ, नित्य, सर्वव्यापक, ऐसे ब्रह्मसे तो त्रिकालमें कदापि सृष्टि नहीं होवेगी, निरुपाधिक होनेसें, मुक्तामावत्. ।१। जेकर दूसरा पक्ष मानोंगे, तब तो द्वैतापत्तिसें त्रिकालमें भी अद्वैतकी सिद्धि नही होवेगी.। २। जेकर तीसरा पक्ष मानोगे, तब तो तीनोंही कालमें एक शुद्ध ब्रह्मकी सिद्धि न होवेगी.
और ऊपर सप्तम स्तंभमें लिखी श्रुतियोंमें लिखा है कि-ब्रह्मके चार भागोंमेंसें तीन भाग तो सदा मायाप्रपंचसे रहित शुद्ध सच्चिदानंदरूप अपने स्वरूपमेंही प्रकाश करता हुआ व्यवतिष्ठित रहता है, और एक चौथा भाग सो मायामें मायासंयुक्त हो कर, अथवा सदा मायासं
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