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षष्ठस्तम्भः।
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सृजन करता भया, प्राणीयोंको इंद्रादिकोंके कर्म आत्मस्वभाव है जिनका तिनकों, और पाषाणादिकोंको, और देवतायोंके साध्योंको, देवविशेषोंके समूह, यज्ञ ज्योतिष्टोमादिकोंको, कल्पांतरमेंभी अनुमीयमान होनेसें नित्य है इनकों सृजन करता भया ॥२२॥ ब्रह्मा, ऋग्, यजुः, साम, नामक तीनवेदोंकों आग्न, वायु, रविसे आकर्षण करता भया; सनातन नित्य वेद अपौरुषेय है, ऐसें मनुको सम्मत है, यज्ञकी सिद्धिकेवास्ते दोहन करता भया; ॥ २३ ॥ आदित्यादिक्रिया, प्रचयरूपकाल, कालविभक्ति मास ऋतु अयनादि,नक्षत्र कृत्तिकादि ग्रह सूर्यादि नदीयां समुद्रादिकों, पर्वतोंको समविषम ऊंचनीच स्थानोंकों रचता भया॥२४॥तपः-प्राजापत्यादि, वाचं. वाणी, रति-चित्तका परितोष, काम-इच्छा, क्रोध इनकों रचता भया; येह प्रजा वक्ष्यमाण देवादिकोंकी रचना करनेकी इच्छा करता भया; ॥२५॥ कर्मणांचेति-धर्मयज्ञादिक, सो कर्त्तव्य है; अधर्म-बह्मादिबध, सो न कररना; ऐसें कोंके विभागतांइ धर्माधर्मका विवेचन करता भया, पृथक् करके कहता भया; धर्मका फल सुख,अधर्मका फल दुःख,धर्माधर्मके फल भूत दोनों परस्पर विरुद्धोंकरके सुखदुःखादिकोंकरके इस प्रजाकों योजन करता भया; आदिग्रहणसें काम,क्रोध, राग, द्वेष,क्षुधा, पिपासा, शोक मोहादिकरके युक्त करता भया ॥२६॥ दशार्द्धानां पंचमहाभूतोंके जे सूक्ष्म पंचतन्मात्ररूप विनाशी पांच महाभूतरूपपणे परिणामी जे है, तिनोके साथ कथन करा, और करेंगे. ऐसा यह जगत् उत्पन्न होता है. अनुक्रमकरके सूक्ष्मसें स्थूल, स्थूलसें स्थूलतर, इसकरके सर्वशक्तिसें ब्रह्मकी मानस स्मृष्टि कदाचित् तत्त्वनिरपेक्षाही होवेगी, ऐसी शंकाको दूर करता हुआ तत् द्वारकरकेही यह सृष्टि ऐसा मध्यमे फेर स्मरण करता भया. ॥ २७ ॥ सो प्रजापति जिसजातिविशेषकों व्याघ्रादिकोंको, जिस क्रिया हरिणादिमारणारूपमें, सृष्टिकी आदिमें जोडता भया, सो जातिविशेष वारंवार सृजन करतां स्वकर्मोके वश करके तैसाही आचरण करते हुए. इस कहनेकरके प्राणियोंके कर्मानुसार प्रजापतिने उत्तमाधम जातियां रची है, नतु रागद्वेषाधीनसें. ॥२८॥ इसकाही विस्तार करते हैं, (हिंस्र कर्म) सिंहादिकोंको
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