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पञ्चमस्तम्भः। प्रवर्त्तमानान् प्रकृतरिमान् गुणान् __ तमोटतत्वाद्विपरीतचेतनः ॥ अहंकरोमीत्यबुधोऽपि गम्यते
तृणस्य कुब्जीकरणेप्यनीश्वरः ॥ ७३ ॥ व्याख्या--सांख्यमतवाले कहते हैं कि-पांच प्रकारके महाभूत, नानाप्रकारका देह, नाम, संस्थान (आकार) येह सर्व अव्यक्त प्रधानसेंही समुत्थान (उत्पन्न) होते हैं, अर्थात् जगदुत्पत्ति प्रधानसेंही मानते हैं. अब प्रधान अपरनाम प्रकृतिका स्वरूप दिखाते हैं, जो प्रधान है, सो सर्वगत है, सामान्यरूप है, सर्व कार्योंका आदिकारण है, नित्य है, सूक्ष्म है, लिंगरहित है, अचेतन है, अक्रिय है, एक है, ऐसा प्रधाननामा तत्त्व है. तिस प्रधान (प्रकृति )सेंमहान्, अर्थात् बुद्धि उत्पन्न होतीहै, तिसबुद्धिसें अहंकार उत्पन्न होता है, तिस अहंकारसें सोलांका गण उत्पन्न होता है, तिन सोलांके गणमेंसें पांच तन्मात्रसें पांच भत उत्पन्न होते हैं: मलप्रकृति जो है सो अविकृति है, महदादिप्रकृतिकी विकृतियां है, सोलां जो है सो विकार है, और पच्चीसमा तत्त्व पुरुष है, सो न प्रकृति है और न विकृति है; जिसहेतुसें पुरुषमें गुणलक्षण नहीं है, और कार्यकारण लक्षणभी नहीं है, तिसहेतुसें प्रकृतिसें पुरुष अन्य है, कर्मके फलका भोक्ता है, परंतु कर्ता नहीं है; “अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने” इतिवचनात् ॥
प्रकृतिसें प्रवर्त्तमान हुए इन पूर्वोक्त गुणोंको तमोवृतरूप होनेसें, चेतन इन गुणोंसें विपरीतस्वरूप है, इसवास्ते — अहं करोमि' मैं कर्त्ता हूं ऐसा तो मूर्खभी मानता है; क्यों कि, कर्त्तापणा जो है, सो तो अहंकारको है, और पुरुष तो तृणमात्रकोभी वांका करणे समर्थ नहीं है ॥ ६८॥ ६९ ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ -५" शाक्याश्चाहुः ॥” विज्ञप्तिमात्रमेवैतदसमर्थावभासनात् ॥
यथा जैन करिष्येहं कोशकीटादिदर्शनम् ॥७४॥ क्रोधशोकमदोन्मादकामदोषाधुपद्रुताः ॥ अभूतानि च पश्यन्ति पुरतोवस्थितानि च ॥७॥
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