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तत्वनिर्णयप्रासादअथ स्तुतिकार अज्ञानियोंके प्रतिबोध करने में अपनी असमर्थता कहते हैं.
अनायविद्योपनिषन्निषष्णैर्विशंखलैश्यापलमाचरद्भिः॥ अमढलक्ष्योपि पराक्रिये यत्त्वत्किंकरः किं करवाणि देव ॥२३॥ व्याख्या-अनादि अविद्या, अर्थात् मिथ्यात्व अज्ञानरूप उपनिषदूरहस्यमें तत्पर हुयोंने, और विशृंखलोने, अर्थात् विना लगाम स्वछंदाचारी प्रमाणिकपणारहितोंने, और चपलता अर्थात् वाग्जालकी चपलताके आचरण करतेह्रयोंने, इन पूर्वोक्त विशेषणोंविशिष्ट महाअज्ञानिपुरुषोंने जेकर तेरे अमूढ लक्ष्यकाभी-जिसके उपदेशादि सर्व कर्म निष्फल न होवें तिसकों अमूढलक्ष्य कहते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ ऐसे तेरे अमूढलक्ष्यकोंभी, जेकर पूर्वोक्त पुरुष खंडन करे-तिरस्कार करे, जैसे कोई जन्मांध सूर्यके प्रकाशकों पराकरण करे, न माने, तो तिसकों निर्मल नेत्रवाला पुरुष क्या करे? ऐसेही अज्ञानी तेरा तिरस्कार करे, तो हे देव! स्वस्वरूपमें क्रीडा करनेवाले सर्वज्ञ वीतराग! तेरा किंकर मैं हेमचंद्रसूरि, क्या करूं? कुछभी तिनकेतांई नहीं कर सकता हूं. जैसें जन्मके अंधकों अंजनवैद्य कुछ नहीं कर सकता है. ॥ २३ ॥ अथ स्तुतिकार भगवंतकी देशना भूमिकी स्तुति करते हैं-- विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाश्रयंति यां शाश्वतवैरिणोऽपि ॥ परैरगम्यां तव योगिनाथ तां देशनाभूमिमुपाश्रयेऽहम्॥२४॥ व्याख्या-हे योगिनाथ! (यां) जिस तेरी देशनाभूमिकों (शाश्वतवै. रिणः-अपि ) शाश्वतवैरीभी, अर्थात् जिनका जातिके स्वभावसेंही निरंतर वैरानुबंध चला आता है, जैसे विल्लि मूषकका, श्वान बिल्लिका, वृक अजाका, इत्यादि; वेभी सर्व, (विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाः) खजातिका शाश्वत वैरै रूपव्यसनके अनुबंधसें विमुक्त रहित हुए थके (श्रयंति) आश्रित होते हैं. यह भगवंतका अतिशय है कि, शाश्वतवैरीभी भगवानकी देशनाभूमि समवसरणमें जब आते हैं, तब परस्पर वैर छोडके परममैत्रीभावसे एकत्र बैठते हैं; और जो (परैः) परवादीयोंने (अगम्यां) अगम्य है, अर्थात् परवादी जिस देशनाभूमिका स्वरूप नही जान सक्ते हैं
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