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तत्त्वनिर्णयप्रासाद(अरक्तद्विष्टानां) रागद्वेषरहितोंकों, अर्थात् किसी मतमें जिनोंका राग पक्ष पात नहीं है, और किसी मतमें जिनोंकों द्वेषसें अरुचि नहीं है, ऐसे परीक्षापूर्वक सत् असत् वस्तुका प्रमाणसें निर्णय करनेवालोंकों (अयं) यह (तवालोकः) तत्त्वप्रकाशक स्तव-स्तोत्र (स्तुतिमयं-उपाधि) स्तुतिमय उपाधिकों-स्तुतिमय धर्मचिंताकों (विधृतवान् ) धारण करता है.॥३२॥इतिश्रिहेमचंद्रसूरिविरचितमयोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिकाख्यं श्री महावीर स्वामिस्तोत्रं बालावबोधसहितं समाप्तम् ॥ तत्समाप्तौ च समाप्तोयं तृतीयः स्तम्भः॥ श्रीमत्तपोगणेशेन विजयानंदसूरिणा॥कृतोबालावबोधोयं परोपकृतिहेतवे॥१॥
इन्दुबाणाङ्कचन्द्राब्दे माघमासे सिते दले ॥ पञ्चम्यां च तिथौ जीवघटेपूर्तिमगात्तथा ॥२॥ ॥ इतिश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे अयो___ गव्यवच्छेदकवर्णनोनाम तृतीयःस्तंभः ॥३॥
॥ अथ चतुर्थस्तम्भप्रारम्भः॥ तृतीयस्तंभमें प्रायः अयोगव्यवच्छेदका वर्णन किया, अब इस चतुर्थस्तंभमें विशेषतः अयोगव्यवच्छेदादि वर्णन करते हैं.
॥ अहम् ॥ प्रणिपत्यैकमनेकं केवलरूपं जिनोत्तमं भक्त्या ॥
भव्यजनबोधनार्थं नृतत्त्वनिगम प्रवक्ष्यामि ॥१॥ व्याख्या-मैं हरिभद्रसूरि (नृतत्वनिगमं) नृतत्त्व लोकतत्त्वनिर्णयरूप निगम आगम कहता हूं; किसवास्ते? (भव्यजनबोधनार्थं) भव्यजनोंके तत्त्वज्ञानके वास्ते ; क्या करके ? (भक्त्या) भक्ति करके (प्रणिपत्य ) नमस्कार करके; किसकों ? (जिनोत्तमं) जिन नाम सामान्य केवलीका है, तिनोंमें तीर्थंकरनामकरके जो उत्तम होवे, तिनकों जिनोत्तम, जिनवर, अरिहंत, कहते हैं, तिनकों. कैसे जिनोत्तमकों ? ( एकं) एकरूपकों, और (अनेकं) अनेकरूपकों, शुद्धद्रव्यार्थिकनयके मतसें एकरूप है, “एगेदव्वे एगेआया एगेसिद्धे” इति श्रीस्थानांगसूत्रवचनप्रामाण्यात्, अर्थात् सामा
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