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तृतीयस्तम्भः ।
१०७ अनेक कृत्य जे अच्छे पुरुष नही करसक्ते हैं, वे सर्व कृत्य ईश्वर करसक्ता है ?
पूर्वपक्षः-ऐसे ऐसे पूर्वोक्त सर्वकृत्य ईश्वर नही कर सकता है, क्यों कि, ऐसी बुरी शक्तियां ईश्वरमें है तो सही, परंतु ईश्वर करता नहीं है.
उत्तरपक्षः-तुम्हारे दयानंदस्वामी तो लिखते हैं कि, ईश्वरकी सर्वशक्तियां सफल होनी चाहिये; जेकर पूर्वोक्त सर्वकृत्य ईश्वर न करेगा तो, तिसकी सर्व शक्तियां सफल कैसे होवेंगी?
पूर्वपक्षः-ईश्वरमें ऐसी २ पूर्वोक्त अयोग्य शक्तियां नहीं है.
उत्तरपक्षः-तब तो वदतोव्याघात हुआ, अर्थात् सर्वशक्तिमान् ईश्वर सिद्ध नहीं हुआ, तो फेर, देह मुखादि उपकरणरहित सर्वव्यापक ईश्वर, प्रमाणद्वारा वेदोंका उपदेशक कैसे सिद्ध होवेगा? अपितु कदापि नहीं होगा. क्योंकि, उपदेश जो है सो देहवालेका कर्म है, इस वास्ते एक ईश्वरमें पूर्वोक्त देहरहित होना और उपदेशकभी होना, ये परस्पर विरोधि धर्म नही घट सक्ते हैं, इसवास्ते परवादीयोंका कथन अज्ञानविजूंभित है ।। १७॥
अथ स्तुतिकार भगवंत श्रीवर्द्धमानस्वामी फेर अयोग्यव्यवच्छेद कहते हैंप्रागेव देवांतरसंश्रितानि रागादिरूपाण्यवमांतराणि न मोहजन्यां करुणामपीश समाधिमास्थाय युगाश्रितोऽसि १८
व्याख्या हे जिनेंद्र! हे ईश! (रागादिरूपाणि) राग, द्वेष, मोह, मद, मदनादिरूपदूषण (प्राक्-एव) पहिलांही (देवांतरसंश्रितानि) तेरे भयसें, ( देवांतर ) अन्यदेवोंमें आश्रित हुए हैं कि, मानू, निर्भय हम इहां रहेगें; जिनेंद्र तो हमारा समूलही नाश करनेवाला है, इसवास्ते किसी बलवंतमें रहना ठीक है, जो हमारी रक्षा करे, मानू, ऐसा विचारकेही रागादि दूषण देवांतरोंमें स्थित हुए हैं. कैसे है वे रागादिदूषण ? ( अवमांतराणि) जे क्षयकों प्राप्त नही हुए हैं, अर्थात् अप्रतिहत शक्तिवाले हैं, जिनका क्षय वा क्षयोपशम वा उपशम किंचित् मात्रभी नहीं हुआ है, इसवास्ते हे ईश! तूं (समाधि-आस्थाय ) समाधिकों
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