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तत्वनिर्णयप्रासादजैसे अग्नि इंधनको भस्म करके जाज्वल्यमान रूपवाला होता है, तैसे भगवंत कर्मवनको दाहके निर्मल योगरूपको प्राप्त हुये हैं, इसवास्ते भगवान् अर्हन्को योगरूप कहते हैं. यजमान अर्थात् यज्ञ करनेवाला आत्मा है, तपदानदयादिसें यज्ञ करता है. निर्लेप लेपरहित होनेसें आकाशसमान भगवंतको कहते हैं। ॥३५-३६॥
सौम्यमूर्तिरुचिश्चंद्रो वीतरागः समीक्ष्यते ॥
ज्ञानप्रकाशकत्वेन आदित्यः सोऽभिधीयते ॥ ३७॥ व्याख्या-सौम्यमूर्ति मनोहर होनेसे भगवंत चंद्रवत् चंद्र वीतराग होनेसे देखते है, और ज्ञानप्रकाशकरने करके सो भगवंत अहँनको आदित्य (सूर्य) कहिये है. ॥ ३७ ॥
पुण्यपापविनिर्मुक्तो रागद्वेषविवर्जितः ॥
श्रीअर्हड्यो नमस्कारः कर्त्तव्यः शिवमिच्छता ॥३८॥ व्या०-पुण्यपापकरके विनिर्मुक्त (रहित) है, और गगद्वेषकरके विवर्जित है, ऐसे श्रीअर्हतको मुक्तिइच्छक पुरुषोंने नमस्कार करणे योग्य
अकारेण भवेद्विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः ॥
हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्यान्ते परमं पदम् ॥ ३९॥ व्या०-अब अर्हन् शब्दका स्वरूप कथन करते हैं. आदिमें जो अकार है, सो विष्णुका वाचक है, और रकारमें ब्रह्मा व्यवस्थित है, और हकार करके हर (महादेव) कथन करा है, और अंतमें नकार परमपदका वाचक है. ॥ ३९ ॥
अकार आदिधर्मस्य आदिमोक्षप्रदेशकः॥
स्वरूपे परमं ज्ञानमकारस्तेन उच्यते ॥ ४० ॥ व्या०-अकार करके आदिधर्म, और मोक्षका प्रदेशक है, तथा स्वरूपविषे परम ज्ञान है, इसवास्ते अर्हन् शब्दकी आदिमें जो अकार है, तिसका यह अर्थ होनेसे अकार कहते हैं. ॥ ४०॥
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