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तस्वनिर्णयप्रासादघृतादि द्रव्योंके हवन करनेसें पवन सुधरता है, तिससें मेघ शुद्ध वर्षता है, तिसमें मनुष्य निरोग्य रहते हैं, यह अग्निके हवन करनेसें महान् उपकार है ऐसा मानना, वेदोंमें ईश्वरने मांस खानेकी आज्ञा दीनी है. वेदमंत्र पवित्रित मांस खानेमें दूषण नही, निरंतर मांससे हवन करना, केवल क्रियाही मोक्ष मानना, केवल ज्ञानसेंही मोक्ष मानना, रागी, द्वेषी, अज्ञानी, कामीकों परमेश्वर कथन करना, सारंभी, सपरिग्रहीकों साधु मानना, पशुयोंकों मारना चाहिये नही तो येह बहुत हो गए तो, मनुष्योंकी हानि करेंगे, स्त्रीकों इग्यारह खसम करने, ऐसे नियोगकी ईश्वरकी आज्ञा है, इत्यादि कुमार्गका नुपदेश करो! कर्मके नुदयकों अनिवार्य होनेसें (नु) अव्यय है, खेदार्थमें तिससे बडा खेद है (नाम) कोमलामंत्रणमें है वा प्रसिद्धार्थमें है तब तो ऐसा अर्थ हुवा कि, बडाही खेद है कि ऐसे असूया करके अंध पुरुष ( अन्यानपि) अन्य जगत्वासी मनुप्योंकोंभी (प्रलम्भं ) कुमार्गके लाभ-प्राप्तिकों (लम्भयन्ति) प्राप्ति कराते हैं, अर्थात् आप तो कुमार्गकी देशना करनेसें नाशकों प्राप्त हुए हैं, परं अन्य जनोंकाभी कुमार्गमें प्रव के नाश करते हैं. इतना करकेभी संतोषित नहीं होते हैं, बलकि वे, असूया इर्षा करके अंधे (सुमार्गगं) सुमार्ग गत पुरुषकों, (तद्विदं ) सुमार्गक जानकारकों और (आदिशन्तं ) सुमार्गके नुपदेशककों (अवमन्वते ) अपमान करते हैं. जैसे यह ईश्वरकों जगत्क. र्ता नही मानते हैं, वेदोंके निंदक हैं, वेद बाह्य हैं, नास्तिक हैं, जगतकों प्रवाहसे अनादि मानते हैं, कर्मका फलप्रदाता निमित्तकों मानते हैं, परंतु ईश्वरको फलप्रदाता नही मानते हैं, आत्माकों देहमात्र व्यापक मानते हैं, षट्कायको जीव मानते हैं, इत्यादि अनेक तरेसें अपना मत चलाते हैं; इस वास्ते अहो लोको ! इनके मतका श्रवण करना तथा इनका संसर्ग करना, अछा नहीं है, इत्यादि अनेक वचन बोलके पूर्वोक्त तीनोंका अपमान करते हैं. ॥ ७ ॥ अथाग्रे भगवतके शासनका महत्त्व कथन करते हैं. प्रादेशिकेभ्यः परशासनेश्यः पराजयो यत्तव शासनस्य खद्योतपोतद्यतिडम्बरेश्यो विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥ ८ ॥
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