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तत्वनिर्णयप्रासादवाक्यकों वेद मानते हैं; शेष ईश्वर, ईश्वरस्तुति, ईश्वरस्वरूप और वे. दांत अद्वितीय ब्रह्मकी प्रतिपादक श्रुतियां, यह सर्व ऋषियोंने पीछे प्रक्षेप करी हैं, ऐसे मानते हैं. जैन मतका शास्त्रभी पूर्वोक्त मीमांसक मतकी गवाही देता है यदुक्तं षड्दर्शनसमुच्चये श्रीहरिभद्रसूरिपादैः ।।
जैमिनीयाः पुनः प्राहुः, सर्वज्ञादिविशेषणः ॥ देवो न विद्यते कोपि, यस्य मानं वचो भवेत् ॥ १॥ तस्मादतींद्रियार्थानां, साक्षाद्रष्टुरभावतः ॥ नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिर्णयः॥२॥ अतएव पुरा कार्यो, वेदपाठः प्रयत्नतः ।। ततो धर्मस्य जिज्ञासा, कर्तव्या धर्मसाधनी ॥ ३ ॥ नोदनालक्षणो धर्मो, नोदना तु क्रियांप्रति ॥
प्रवर्तक वचः प्राहुः, स्वः कामोनिं यजेद्यथा ॥४॥ भाषार्थः-जैमनीय पुनः कहते हैं कि, सर्वज्ञादि विशेषणवाला ऐसा कोइ देव नहीं है कि, जिसका वचन प्रमाण होवे ॥१॥ तिस वास्ते अतींद्रिय अर्थोंके साक्षात् द्रष्टाके अभावसें नित्य ऐसें वेदवाक्योंसें यथावस्थित पदार्थत्वका विशेष निर्णय होता है ॥२॥ इस वास्ते प्रथम प्रयत्नसें वेदपाठ करना, पीछे धर्मसाधन करनेवाली धर्मजिज्ञासा करनी॥३॥ वेदवचनकृतनोदना, प्रेरणालक्षण धर्म, और नोदना क्रियाके प्रतिप्रवकका वचन, जसें वर्गका कामी अग्निका यजन करे ॥ ४ ॥
और जिन सूक्तोंसें ईश्वरका खरूप कयन करा है, सो भी प्रमाणयुक्तिसें बाधित है, सो स्वरूप थोडासा आगेकों लिख दिखावेंगे. और वेदोंकी उत्पत्ति जनमतवाले जैसें मानते हैं, तैसें जैनतत्वादर्श नामक (सवत १९४० का छपा) पुस्तकके ६१० सें लेके १२२ पृष्ठतक जाननी. ब्राह्मण लोक जिसतरें वेदकी संहिता उत्पन्न भई मानते हैं, तैसें महीधरकृत यजुर्वेदभाष्य, और अज्ञानतिमिरभास्कर ग्रंथसें जान लेनी. इस वास्ते वेद सर्वज्ञ अष्टादश दूषणरहित भगवंतके कथन करे हूए नहीं हैं, तो फेर ये
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