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तत्वनिर्णयप्रासादविभावर्या च संपृक्ता बभूवातितमोमयी।
तामुवाच ततो देवः क्रीडाकेलिकलायुतम् ॥ ५९० ॥ इति श्री मत्स्यपुराणे त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥१५॥
भाषा-फिर प्रकाशित हुए रत्नोंकी भीतोंवाले स्थानमें चंद्रमाके समान श्वेत वस्त्रसे शोभित हुई अनेक प्रकारके रत्नोंकी किंकिणी और मोतीयोंकी जालीसे जडी हुई कांतिवाली सुंदर चांदनी जिसके ऊपर तनी हुई ऐसी उत्तम शय्यापर शिवजी महाराज पार्वतीको साथ लेके शयन करते भये. जब पार्वतीकी भुजाओंमें अपनी ग्रीवा लगाकर शयन करते भये, तब शिवजीकी श्वेत कांति अत्यंत सुंदर लगती भई, और नीले कमलके समान कांतिवाली पार्वती भी रात्रिके अंधकारमें अतिकाली विदित होती भई. उ. स समय शिवजी पार्वतीसे हास्यके वचन बोले. ॥ इतिश्रीमत्स्यपुराणभापाटीकायां त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५३ ॥
॥शर्व उवाच ॥ शरीरे मम तन्वङि ! सिते भास्यसितद्युतिः ॥ भुजङ्गीवासिताऽशुद्धा संश्लिष्टा चन्दने तरौ ॥ १ ॥ चन्द्रातपेन संप्टक्ता रुचिराम्बरया तथा ॥ रजनीवासिते पक्षे दृष्टिदोषं ददासि मे ॥२॥ इत्युक्ता गिरिजा तेन मुक्तकण्ठा पिनाकिना ॥ उवाच कोपरक्ताक्षी भृकुटीकुटिलानना ॥३॥
॥ देव्युवाच ॥ स्वकतेन जनः सर्वो जाड्येन परिभूयते ॥ अवश्यमर्थात् प्राप्नोति खण्डनं शशिमण्डलम् ॥४॥ तपोभिर्दीर्घचरितैर्यच्च प्रार्थितवत्यहम् ॥ तस्या मे नियतस्त्वेष पवमानः पदेपदे॥५॥
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