________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
द्वितीयस्तम्भः। इति चिन्त्य हरस्तस्य अभिज्ञानं विधारयन् ॥ नापश्यद्वामपार्श्वे तु तदड़े पद्मलक्षणम् ॥३५॥ लोमावर्त तु रचितं ततो देवः पिनाकधृक् ॥ अबुध्यदानवीं मायामाकारं गृहयंस्ततः॥३६॥ मेढ़े वजास्त्रमादाय दानवं तमशातयत् ॥ अबध्यद्वीरको नैव दानवेन्द्रं निषदितम् ॥ ३७॥ हरेण सूदितं दृष्ट्वा स्त्रीरूपं दानवेश्वरम् ॥ अपरिछिन्नतत्वार्था शैलपुत्यै न्यवेदयत् ॥ ३८॥ दृतेन मारुतेनाशुगामिना नगदेवता ॥ श्रुत्वा वायुमुखाद्देवी क्रोधरक्तविलोचना ॥
अशपद्वीरकं पुत्रं हृदयेन विदूयता ॥३९॥ इतिश्रीमत्स्यपुराणे पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५५॥
भाषा-सतजी बोले इसके अनंतर वह पार्वती कुसुमामोदिनीनामवाली उस पर्वतकी देवता सतीको सन्मुख आती हुई देखती भई, वह सती देवता भी पार्वतीको देखकर स्नेहपूर्वक बोली कि, हे पुत्री! तू कहां जाती है, तब पार्वती उस अपने शिवजीके प्रभावसे उत्पन्न हुए अपने क्रोधरूप कारणको कहती भई, और अपनी माताकेही समान उस सतीको मानकर यह वचन बोली. हे अनिंदिते! तू इस पर्वतकी देवता है, सदैव यहां रहती है, और मेरी बडी प्यारी है, इस हेतुसे में तेरे आगे जो कहती हूं वह तुझको करना चाहिये. इस पर्वतमें जो अन्य कोई स्त्री आवे, अथवा शिवजी एकांतमें किसी अन्य स्त्रीसे बतरावें तो, तू मुझको अवश्य खबर दीजो, उसकेपीछे मैं प्रबंध करलूंगी. ऐसा कहकर पार्वती अपने हिमालय पर्वतमें जाती भई. पार्वती अपने पिताके बगीचे में ऐसे नाती भई जैसे कि, आकाशमें मेघमाला चली जाती है, ऐसे प्रकारसे आकाशमार्ग होकर उसने गमन किया, और वहां जाकर वृक्षोंके वल्कल
For Private And Personal