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करते हैं कि, आप दया करके प्रतिष्ठा के दिनोंसे महिना दो महिने पहिलेही, यहां (सनखतरा ) पधारोगे, जिससे हमको शांति हो जावेगी. "
इस विनतीको हृदय में धारण करके श्री महाराजजी साहिब लुधी आने से विहार करके फगवाडा, जालंधर, झंडी आला, अमृतसर, होकर नारोवालमें पधारे. यहां अनुमान पंदरा दिन रहकर प्रतिष्ठा के सबब से श्री सूरिमहाराज, “सनखतरे "पधारे; जहां अलौकिक जैन मंदिर, देखके अत्यानंद हुआ. मंदिर के सोपान (उडी) चढते हुये, श्री महाराजजी साहिब अपने शिष्य " वल्लभ विजय" से कहने लगे कि, "अरे वल्लभ ! क्या शत्रुंजय ऊपर चढते हैं ?" इस वखत शत्रुंजयके याद आनेका हेतु यही है कि, वो मंदिर शत्रुंजय तीर्थ ऊपर मूल नायक श्री ऋषभदेव भगवान्की टुंकका जैसा नकशा है, वैसीही ढब पर बना हुआहै. अहा ! वृद्धोकें, और फिर महात्माओंके, जिसमें भी ऐसे गुणसमुद्र महात्मा कि, जिसके गुणों का वर्णन करना मुश्किल है, ऐसे महात्मा के मुखाविंद से पूर्वोक्त वचन वासना अनायासही, ऐसी निकली के, जिसने सनखतरेके मंदिरको वासित कर दिया. अर्थात् उस समय वो मंदिर, साक्षात् शत्रुंजय काही अनुभव देने लगा. क्योंकि, श्री महाराजजी साहिब के पधारने से, सनखतराके श्रावक समुदाय ने, देश परदेश प्रतिष्ठा महोत्सव संबंधी आमंत्रण पत्र भेजे. जिसको वांचके कपडवंजका श्रावक शाह शंकरलाल वीरचंद और अहमदावादका श्रावक ठकोरदास, नवीन जिनबिंबको अंजनशिलाका कराने के वास्ते लेके सनखतरे पहुंचे, इनको उतारा दे रहे थे, इतनेमेंही, मुंबईसें " शेठ तलकचंद माणेकचंद जे. पी. " के भेजे मणिलाल, और छगनलाल नवीन जिनबिंबको अंजनशिलाका कराने वास्ते लेकर आ. जिनके साथ शत्रुंजय तीर्थ ऊपरसे शेठ मोतीशाह के कारखानेसे नवीन जिनबिंबको अंजनशिलाका वास्ते लेकर, माली, मंदिरका पूजारी, आयाथा. तथा बडौदेवाले, "गोकलभाई दुल्लभदास " और छाणीवाले "नगीनदास गरबडदास," प्रतिष्ठाकी क्रिया कराने वास्ते आये थे; वे भी, ' 'बडोदा, " " अहमदावाद, " " मेहसाणा, ” “छाणी,” “वरतेज,” “जयपुर" "दील्ली,” are शहरों श्रावक के बनवाए रत्नमय, और पाषाणमय, जिनबिंब, ले आये थे. ऐवं पौनेदोसों ( १७५ ) जिनबिंब अंजनशिलाकाके वास्ते, सनखतरेके मंदिरमें तीन वेदिका ऊपर स्थापन किये गये. जिसमें मूलनायकजी, श्री ऋषभदेवजी, स्थापन किये गये थे. इस वखत शत्रुजय तीर्थ सिद्धघका अनुभव, देखनेवालेको होरहा था. श्रीसूरि महाराजजीकी निगा नीचे, श्रीवर्द्धमान सूरिविराचेत आचार दिनकर ग्रंथके अनुसार पूर्वोक्त श्रावक सकल क्रिया कराते रहे. लग्नका समय प्राप्त हुए, श्रीसूरि महाराजने, “ श्री धर्मनाथ स्वामी" को, नूतन मंदिर में गद्दी ऊपर स्थापन करके, मूलनायक श्री " ऋषभदेवजी " वगैरह नूतन जिनबिंबको, विधि पूर्वक अंजन किया. इन अंजन किये नवीन जिनबिंब मेंसें कितनेक तो, श्रीशत्रुंजय तीर्थ ऊपर, कपडवंजवाली शेाणी माणेक बाईका बनवाए नवीन जिन मंदिर में स्थापन किये गये. मी० तलकचंद माणेकचं - दने, सुरत में जिन मंदिर बनाय के स्थापन किये. एवं अपने अपने शहेर में, जिनबिंब बनवाने वालोंने, श्री जिन मंदिर में स्थापन किये. मोतीशाह शेठवाले जिनबिंब, शत्रुंजय तीर्थ ऊपर, मोतीशाहकी टुंक स्थापन किये गये. एक मूर्त्ति लाजवर्द रत्नकी, श्री नेमनाथ स्वामीकी, अंजनशिलाका, और प्रतिष्ठा महोत्सवके याद करने के वास्ते, सनखतरेके मंदिर में स्थापन की गई.
ऐसे वैशाख सुदि पूर्णिमा, सोमवार, स्वाति नक्षत्र, रवियोग, तथा सिद्धयोगादि, शुभ दिनमें
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