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प्रथमस्तम्भः। मोक्षमूलर भट्ट अपने रचे संस्कृत साहित्य ग्रंथमें यह भी लिखते हैं, कि वेदके छंदोमंत्र ऐसे हैं, जैसे अज्ञानीयोंके मुखसें अकस्मात् वचन निकले हों. और यह भी कहते हैं, कि जरथोस्ती धर्मपुस्तककी रचना वेदरचनासे पहिली वा वेदरचनाके समान कालकी है. ___ अब सोचना चाहिये कि, वेदमत और जरथोस्तीमतके पुस्तकोंसें पहिले कोई मत और कोई मतके पुस्तक भी अवश्य होने चाहिये. क्योंकि, मोक्षमूलरके लिखने मूजब वेदके छंदोभाग मंत्रभागकी रचनाको २९०० वा ३१०० वर्षके लगभग हुए हैं. फेर मोक्षमूलरजी कहते हैं, कि २२००० वर्ष पहिले एशियाके अमुक अमुक हिस्से में अमुक अमुक जातिके लोक वस्ते थे तो क्या तिनके समयमें कोइ भी पुस्तक, कोइ भी धर्म, इस खंडमें नही था ? यह कैसें माना जावे ? इस हेतुसें यह कोई भी नहीं कह सकता है, कि यही पुस्तक पहिला है, अन्य नही. इसवास्ते वेद सर्व पुस्तकोंसे पहिला पुस्तक सिद्ध नही होता है. हां, संप्रति कालमें जो वेदके पुस्तक हैं, वे जैनमतके संप्रति कालके पुस्तकोंसें प्राचीन रचनाके हैं. क्योंकि, वर्तमान कालमें जे जैनमतके पुस्तक हैं वे सर्व श्री महावीर अर्हनके समयसें लेके पीछेही रचे गए हैं. क्योंकि, श्री महावीर भगवानके, (११) इग्यारह बडे शिष्योंने नव वाचनामें द्वादशांगकी रचना करी थी. अर्थात् नव तरेंके आचारांग, नव तरेंके सूत्रकृतांग, यावत् नव तरेंके दृष्टिवाद. तिनमेसें पांचवे गणधर श्री सुधर्मस्वामीकी वाचना विना, आठ वाचनाका व्यवच्छेद श्री महावीर और श्री गौतमगणधरके पीछेही हो गया था. संप्रति कालमें जे पुस्तक जैनमतमें प्रचलित हैं, वे सर्व श्री सुधर्मस्वामीकी वाचनाके हैं. इस वाचनाके पुस्तकोंको भी बहुत उपद्रव हो गुजरे हैं. __ प्रथम तो नंद राजाके समयमें इस खंडमें बारां वर्षका प्रथम काल पडा, तिसमें भिक्षाके न मिलनेसें एक भद्रबाहूस्वामीकों वर्जके सर्व साधुयोंके कंठाग्रसें द्वादशांगके पुस्तक सर्व विस्मृत हो गये थे. जब बारां वर्षका दुर्भिक्षकाल गया, तब पाटलीपुत्र नगरमें सर्व साधु एकठे हूए जिस जिस साधुको जो जो पाठ कंठ रह गया था, सो सो सर्व सं
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