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पाक्षिकाचार
नाशो भवति; हिंसायाः स्वयं विनाशरूपत्वात् तद्विरुद्धस्वरूपाया अहिंसाया विश्वरक्षकत्वं सकललोककल्याणकारकत्वं च सुतरां सिद्धमेव। स परः पवित्रधर्मः प्राणिनां चित्ते मनसि सदा निरन्तरं मुदा हर्षेण आचन्द्रं चन्द्रस्य स्थितिया॑वत् संसृतौ वर्तते तावत्कालपर्यन्तम् सर्वकालम् इति यावत् तिष्ठतु निवसतु।।३।। यतः कारणात् सकललोकमङ्गलकारकत्वम् अहिंसायामेव तिष्ठति तस्मात् सा एव सर्वोत्तमां धर्मपद्धतिमास्कन्दति। पाक्षिकस्य इयमिच्छा सदा वर्तते यत्साऽहिंसा प्राणिनां हृदि सदैव स्यात् यया मम सर्वलोकस्य च मङ्गलं भवेत् । अहिंसाधर्मव्यतिरिक्तः हिंसारूपो धर्मोऽस्तीति असत्पक्षः प्राणिषु मिथः परस्परं केवलं वैरवर्धक एव। यः खलु कञ्चिदपरं घातयति स इह जन्मनि असमर्थोऽपि जन्मान्तरे यदा शक्तिशाली भविष्यति तदा स्वपूर्वघातकं घातयिष्यति, सोऽपि जन्मान्तरे शाक्तिको भूत्वा तेन स्ववैरं निष्कासयिष्यति इति भाविजन्मपरंपरासु वैरपरंपरावर्धकत्वात् हिंसाधर्मः न स्वस्य कल्याणकारको भवति नापरस्य च। इत्येवंप्रकारो यस्य निश्चयः वर्तते स विवेकशील एव 'पाक्षिकः' इति कथ्यते।।३-४॥
प्राणिमात्र की हिंसा से दूर रहना ही अहिंसा धर्म है, वही सर्वोत्तम धर्म है। तथा उस अहिंसा धर्म में ही लोककल्याण करने की परिपूर्ण शक्ति निहित है। इसमें किसी भी प्राणी को पीड़ा पहुँचाना आदि जो-जो भी कार्य धर्म के नाम पर व्याख्यात किए जाते हैं। वे केवल पक्ष मात्र हैं उनसे परस्पर में बैर ही बढ़ता है। इसलिए अहिंसा परमधर्म जीवधारियों के हृदय में सदा काल निवास करे इस प्रकार का पक्ष जिसका हो वही विवेकी पुरुष पाक्षिक श्रावक कहलाता है।
भावार्थ- प्राणियों को उनके इष्ट अर्थात् वास्तविक सुख को जो प्राप्त करा दे उसे धर्म कहते हैं। अपनी कल्याण कामना करने वाला हर एक जीव इसीलिए धर्म की आकांक्षा करता है। धर्म का ही दूसरा नाम कर्तव्य है। जो इष्टकारक है वही तो कर्तव्य है। दुःखाभाव को ही सुख कहते हैं। अनादिकाल से दुःख के सागर इस संसार में भ्रमण करनेवाले प्राणी की यह इच्छा स्वाभाविक है कि वह अब इस दुःख के सागर से अपना उद्धार करे। इसीलिए वह अपने कर्तव्य (धर्म) की खोज में है कि कब वह उपाय हाथ लगे कि मैं दुःख से निवृत्त हो जाऊँ। हिंसा स्वयं दुखरूप है। परप्राणघातक मनुष्य स्वयं क्रोधादि बुरे परिणामों के अधीन होकर दुःखी होता है और फिर दूसरे के प्राणों को भी पीड़ित कर दुःख पहुंचाता है। इसका फल यह होता है कि दोनों में परस्पर वैर का बंध होता है। न केवल इस जन्म में, बल्कि जन्मान्तरों में भी। जो शक्तिशाली होता है वह अपने पूर्व जन्म के वैरी को दुःखी किए बिना नहीं रहता और वह दुखी किया हुआ प्राणी भी उसी जन्म में या जन्मान्तर में शक्तिशाली बनने पर अपना वैर निकालता है। इसका फल यह होता है कि परस्पर वैर की परम्परा उनमें चलती रहती है। यह तो एक प्राणी
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