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श्रावकधर्मप्रदीप
इत्यन्वर्थनामा अयं ग्रन्थः। स्वात्मन्येव तुष्टेन तृप्तेन सर्वविषयाभिलाषरहितेनेति यावत् । श्रीकुन्थुसागरसूरिणा लिख्यते विरच्यते।।१-२।। - केवलज्ञानादि अनन्त गुणस्वरूप अन्तरङ्ग लक्ष्मी तथा समवशरणादि स्वरूप या चक्रवर्ती आदि की विशेष विभूतिरूप बाह्य लक्ष्मी ऐसी दोनों प्रकार की लक्ष्मी को प्रदान करने वाले तथा कर्मशत्रु पर विजय प्राप्त करने वाले श्री जिनेन्द्रदेव को विनय व हर्ष सहित नमस्कार करके तत्पश्चात् उनके मार्गानुसारी श्रीकुन्दकुन्दादि आचार्यों को मुख्य लेकर भगवान् महावीर स्वामी की परम्परा में चले आए हुए आचार्य वर्ग को भी प्रणाम करके तथा इसके बाद दक्षिणप्रान्त में विहार करने वाले अपने दीक्षागुरु श्री आचार्य शान्तिसागर स्वामी तथा उत्तरप्रान्त विहारी स्वर्गीय विद्यागुरु श्री सुधर्मसागर आचार्य को भी सदाकाल प्रणाम करके श्रद्धागुणसम्पन्न होने से जिन्हें 'श्राद्ध' संज्ञा प्राप्त है ऐसे श्रावकों की उनके कर्त्तव्य अर्थात् करने योग्य तथा अकर्तव्य अर्थात् न करने योग्य कार्यों के विवेक की प्राप्ति के लिए श्रावकों के धर्म को प्रकाशित करने वाला दीपक की तरह यह 'श्रावकधर्म प्रदीप' नामक ग्रन्थ विषयवाञ्छा से दूर परम वीतरागी निस्पृह अतएव स्वात्मसंतोषी श्री कुन्थुसागर आचार्य महाराज के द्वारा लिखा जा रहा है।।१-२।।
धर्माराधक गृहस्थ ३ प्रकार के माने गए हैं- १. पाक्षिक, २. नैष्ठिक, ३. साधक। इनमें से पाक्षिक श्रावकों के स्वरूप को जानने के लिए किसी शिष्य ने प्रश्न किया।
प्रश्न-पाक्षिकश्रावाकाणां किं चिह्नमस्ति गुरो वद?
हे गुरुवर? पाक्षिक श्रावकों की क्या पहिचान है। ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर आचार्य उत्तर देते हैं
पाक्षिकों का चिह्न
(अनुष्टुप्) अहिंसैव परो धर्मः स एको विश्वरक्षकः । आचन्द्रं प्राणिनां चित्तेऽतस्तिष्ठतु सदा मुदा ।।३।। तदन्यः केवलं पक्षो मिथः स्याद्वैरवर्धकः । इत्येव निश्चयो यस्य विवेकी स च पाक्षिकः ।।४।।
अहिंसेत्यादि- पाक्षिकाणां स्वरूपं प्रतिपादयिष्यन्नाचार्यः परमधर्मस्वरूपायाः भगवत्या अहिंसाया महतोमुपयोगितां वक्ति- अहिंसा नाम सर्वप्राणिपीडापरित्यागः स एव एकोऽद्वितीयः विश्वस्य प्राणिमात्रस्य रक्षकः कल्याणकारकः परमोत्कृष्टो धर्मोऽस्ति। हिंसात एव अखिलसंसारस्य
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