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आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.
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सज्जन बोले कि यह सत्य है कि मैंने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के कल्मषहारी दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया परन्तु श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के तीसरे पाट पर विराजमान लेखन कला के अमरधनी विनीतता के महासागर, सैकड़ों की संख्या में ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य की अद्वितीय सेवा करने वाले आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. "शास्त्री" के जब हम दर्शन करते हैं। तो उनकी प्रतिमा में हमें उनके गुरुदेव पूज्यश्री उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन साक्षात् हो जाते हैं। पूज्य उपाध्याय श्री जी म. के अनुरूप व्यक्तित्व का पूर्णरूप से आभास इनमें ही सम्प्राप्त हो जाता है। यह सुनकर मैंने उस सज्जन से कहा- संभव है, भक्तराज कबीरजी ने इसीलिए यह उद्घोष किया हो :
"निराकार की आरती, साधों की ही देह । लखों जो चाहो अलख को, इनमें ही लखि लेह ॥" पुष्कर तीर्थ है
वैदिक परम्परा में पुष्कर एक तीर्थ माना जाता है। संभव है। इस तीर्थ पर जाने वाला यात्री तो कभी खाली ही लौट जाए, परन्तु हमारे तीर्थराज श्रमणसूर्य उपाध्याय पूज्य श्री पुष्करमुनि जी म. की चरण-शरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति कभी खाली नहीं लौट सकता है उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। श्रमणसंघ के इस कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि युग पुरुष के पावन चरण सरोजों में हमारे शत-शत प्रणाम। संक्षेप में कहूँ :
कल्पवृक्ष मुनिराज थे, पुष्कर प्यारा नाम । चरणों में तुम सर्वदा, करते रहो प्रणाम ।
सिमरण करते जो सदा, पावें सौख्य निधान। चिन्तामणि ये सन्त थे, कहता है "मुनि ज्ञान"।
बहुगुणी : बहुश्रुत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी
-श्र. स. सलाहकार श्री रतनमुनि
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी श्रमणसंघ के वरिष्ठ संत थे। वे एक शांतमना, सरल हृदयी तथा अनुशासनप्रिय संत थे। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी उन्होंने श्रमण परम्परा से दीक्षा ग्रहण की और जैन धर्म की विशिष्ट प्रभावना की। अपने एक शिष्य में स्थित संभावनाओं को उन्होंने ऐसा अप्रतिम स्वरूप दिया कि वह आज एक विशाल धर्मसंघ का नेतृत्वकर्ता है। आचार्य पद पर विद्यमान है। अपने अंत पर किसी व्यक्ति को इतने उच्च स्थान पर पहुँचाना गुरु की विशेष गरिमा है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जिन विभूतियों में स्वभावतः उच्चता होती है वे स्वतः ही अपने अनुकूल परिवेश का निर्माण कर लेती हैं। जो धर्म परिवेश अपने इर्द-गिर्द पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. श्री पुष्कर मुनिजी ने रचा उससे अनेक जन उपकृत हुए। वे समाज के केन्द्र बिन्दु थे। तात्पर्य उनके इर्द-गिर्द समाज के कई बिन्दु चक्कर लगाते। अनेक समस्याओं के उचित समाधान दिये। वे एक विशिष्ट कोटि के चिन्तक थे। उनकी साहित्य प्रतिभा अप्रतिम थी। उनके साहित्य में गहराई थी, उच्चता थी और अनेक कोण भी थे। वह बहुआयामी थे।
बहुत ठीक कहा है उनके प्रति आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने "विज्ञान और दर्शन के ध्यान और योग के इतिहास और साहित्य के, संस्कृति और सभ्यता के, अध्यात्म और चिन्तन के, आगम और न्याय के गंभीर ज्ञाता थे।" और यह भी कि वे विभिन्न गुणों की सौरभ से सुरभित थे। वे एक उच्चकोटि के विद्वान थे तो दूसरी ओर एक साधक भी थे। योगी अंतर्दृष्टा तो होते ही हैं। किन्तु शास्त्रज्ञानी होना विरलता है। साधक कठोर आत्मनिग्रही होते हैं पर कुशल प्रशासक होना विशेषता है। तपस्वी तथा ध्यानी वचनसिद्ध होते हैं। पर कलम सिद्धि अद्भुतता है । "
आचार्यश्री के इस कथन में जहाँ उनकी अनन्य श्रद्धा है, वहीं इसमें यथार्थ भी झलकता है। वे एक ऐसे चन्द्र के समान थे जिसके एक साथ ही दोनों पक्ष उजागर थे और वे दोनों पक्ष ही थे प्रकाशमान जीवन में अनूठापन ही उनकी विशिष्टता थी ये बहुगुणी, बहुश्रुती थे। जो भी उनके जीवन में उनके सम्पर्क में आया उसने पाया कि इस कथन में कहीं पर भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। गुरु गंभीर व्यक्तित्व के साथ ही उनमें पर्याप्त सरल हृदयता थी । वे अनेक आयामों से युक्त व्यक्तित्व के धनी थे।
उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिजी चुने गए संतों में से एक संत थे। वे भले ही शरीर से हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु हमारी स्मृतियों में वे पूर्णतः जीवंत हैं। उन्हें राजस्थानकेसरी के पद से, विरुद से अलंकृत किया गया पर वह अलंकार ही उनके व्यक्तित्व से अलंकृत हो गया। वे सामाजिक कल्याण की अपरिमेय क्षमता से युक्त थे। उनमें प्रत्येक के लिए गहन आत्मीयता थी। अपने आपको सही मार्ग पर ले जाकर उन्होंने अन्यों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वे संयम की प्रतिमूर्ति हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने संयम को सर्वोपरि माना। बाक्संयम भी उन्हें सर्वप्रिय था। वे कम बोलते थे पर जो बोलते थे उनमें मृदुता का पुट होता था ।
श्रमणसंघ के निर्माण में आपका योग अभूतपूर्व था। आपके साहित्य, संस्कृतिज्ञान-विज्ञान को अपूर्वता को ध्यान में रखकर ही आचार्यसम्राट्श्री आनंदऋषि जी ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था स्व. आचार्यसम्राट् आनंदऋषि जी ने उनकी विशेषताओं का उल्लेख किया है वह दृष्टव्य है। वे सदा अनुशासन में रहकर दूसरों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया करते हैं ज्ञान होने
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