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आमुख : XXXI
सम्यक्त्व के चार अंग -
जीवन के वास्तविक व परम अर्थ को पहचानना (परमार्थ-संस्तव), जिससे तात्पर्य है सम्यक् धर्म-मार्ग, इसे प्ररूपित करने वाले तीर्थंकरों, तथा इसे प्रचारित-प्रसारित करने वाले श्रमण वर्ग के प्रति पूर्ण श्रद्धा-समर्पण; ऐसे दृष्ट क्रिया-कलापों का आचरण जिनसे उपरोक्त सम्यक् धर्म-मार्ग, इसे प्ररूपित करने वाले तीर्थंकरों, तथा इसे प्रचारित-प्रसारित करने वाले श्रमण वर्ग के प्रति भक्ति-भाव प्रकट हो (सुदृष्ट परमार्थ सेवना); भ्रष्ट प्रज्ञा वालों के साथ से बचना (व्यापन्न-वर्जना) तथा मिथ्यादृष्टियों के सिद्धान्तों का अनुसरण नहीं करना (कुदर्शन-वर्जना) ये सम्यग्दर्शन के चार अंग हैं। हितकारी सम्यग्दर्शन के ये चारों अंग अक्षुण्ण होने चाहिये। इनमें से एक भी अंग का अक्षत न होना सम्यग्दर्शन के अंग-भंग के समान है।
सम्यक्त्व आध्यात्ममार्गी के लिये दृढ़ संबल के रूप में श्रद्धा-विश्वास रूप होता है। उसके गुण-दोष भी इसकी इसी व्याख्या के अनुरूप हैं। सम्यक्त्व के आठ दोष व उनके निवारक गुण निम्नानुसार हैं:'
सम्यक्त्व के दोष सम्यक्त्व के गुण शंका - जिन-वचनो पर शंका, निःशंकित - शंका-मुक्ति, कांक्षा - सांसारिक भोगों की इच्छा, निःकांक्षित - इच्छा-मुक्ति, विचिकित्सा - आध्यात्म अरुचि, निर्विंचिकित्सा - आध्यात्मरुचि, मूढदृष्टि - धर्म-बोध का अभाव, अमूढदृष्टि - धर्म-बोधगम्यता, अनुपगूहन - धर्म-अरक्षणता, उपगूहन - धर्म-रक्षणता, अस्थितिकरण - धर्मच्युतों के प्रति स्थितिकरण - धर्म-च्युतों को धर्म उपेक्षाभाव,
में पुनः स्थिर करना,
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१. उत्तराध्ययनसूत्र, २८.३१. २. श्रमणप्रतिक्रमणसूत्र, ६. ३. पाक्षिकादि अतिचार (दर्शनाचार के आठ अतिचार), २.