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७० : पंचलिंगीप्रकरणम्
अच्छिनिमीलियमित्तं नत्थि
सुहं दुक्खमेव संतत्तं । नरए
नेरईयाणं __ अहोनिसं पच्चमाणाणं ।। ३६ ।।
सुखं
अक्षिनिमीलितमात्रं नास्ति नरके नारकीकानामहर्निशं
दुःखमेव संतप्तं । पच्यमानानाम् ।। ३६ ।।
सुख नहीं पलक झपकने तक का, दुःख ही दुःख से सतत संतप्त । नरक-लोक में नारक-जीव, अहर्निश रहते पाचन-परितप्त।। ३६ ।।
३६. प्रतिक्षण (धधकती हुई अग्नियों में) पकते हुए नारक जीवों को नरकगति में पलक झपकने मात्र का भी सुख नहीं है, अपितु निरन्तर असहय दुःख ही दुःख है।
भावार्थ : सांसारिक दुःखों के वर्णन के क्रम में अब शास्त्रकार नरक में स्थित नारक जीवों के दुःखों का वर्णन करते हुवे कहते हैं कि विभिन्न नरकों में रात-दिन कुम्भीपाक अग्नि में पकाए जाते हुवे नारक-जीवों को पलक झपकने जितने समय के लिये या निमिषमात्र के लिये अत्यल्प भी सुख नहीं होता है। सुख की तो बात ही क्या, वे क्षणमात्र के विराम के बिना सतत, निरंतर ऐसी भयानक, दुःसह और दारुण नारकीय पीड़ा को भोगते हैं जिसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते है।