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७८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
वाहिसयविहुरियंगो
पियविप्पओगविहुरियचित्तो
व्याधिशताविधुरिताङ्गः
प्रियविप्रयोगविधुरितचित्तः
दारिद्दमहागण
दुहसागरमईइ
-
दारिद्र्यमहाग्रहेण
परिभूओ ।
।। ४० ।।
परिभूतः ।
दुःखसागरं गच्छति (निमज्जति ) । । ४० ॥
अनेक व्याधियों से पीड़ित गात्र, दारिद्र्य - महाग्रह से पराजित प्राण । प्रिय-वियोग से खिन्न चित्त, दुःख - सागर की ओर प्रयाण ।। ४० ।।
४०. अशुभ कर्मोदय से मनुष्य-भव में जीव को अन्य भी अनेक दुःख होते हैं, यथा उसका शरीर अनेक व्याधियों से पीड़ित होता है, वह गरीबी की मार से त्रस्त एवं पराजित होता है, अपने प्रियजनों के वियोग से वह उदास, विह्वल व खिन्न होता है तथा इन सब दुःखों से घबराकर वह शोक - सागर में डूब जाता है ( तथा उसे इस शोकाकुल मानसिक दशा में ही दुःख भरे संसार से विरक्ति होने लगती है) । यही निर्वेद का प्रारम्भ है ।