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११६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
एयाहिंतो बुद्धा विरया रक्खंति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगया अबाहिया आभवमिमाणं ।। ५६ ।।
एतस्मात् बुद्धाः विरता रक्षन्ति इतश्च' निर्वाणगतोऽबाधकाभवमेषां
येन पृथिव्यादीन् । कथं नु? ।। ५६ ।।
इसके द्वारा संबुद्ध विरत अबाध अभव-पथ पर,
सब जीवों का करते रक्षण।
अतः अनुकम्पा ही है जिनभवन निर्माण,
न कि जीवों का भक्षण ।। ५६।।
५६. स्पष्ट रूप से पृथ्वीकायादि की हिंसा से युक्त जिनालय निर्माण की प्रक्रिया को अनुकम्पापरक कैसे कहा गया, इसको स्पष्ट करते हुवे शास्त्रकार कहते हैं कि जिन-भवन (व उसके अंदर विराजित जिनप्रतिमा) के दर्शन से सम्यग्दृष्टि (तत्त्वदर्शी) बनी आत्माएँ सभी जीवों की रक्षा करती हुई अबाध अभव (मोक्ष) की ओर गमन करती हैं जहाँ वे सर्वसावद्यविरत (सभी प्रकार की हिंसक वृत्तियों व कार्यों को नहीं करने वाले) होते हैं अतः निर्माणोपरान्त जिनालय जीव-रक्षण का निमित्त बनता है। इस प्रकार जिनालय निर्माण का सावद्यकर्म भी अनुकम्पा ही है, हिंसा नहीं।
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'च' का प्रयोग छन्दपूर्ति हेतु। 'कथं नु' का प्रयोग छन्दपूर्ति हेतु।