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१६० : पंचलिंगीप्रकरणम्
निययावही न हुज्जा संसारो अहमतुओ सया होउ। मुक्खो कम्माभावो सासयजीवस्स भावो उ।। ६७।।
नियतावधिः न स्यात् संसारः अहेतुकः सदा भवतु। मोक्ष कर्माभावः शाश्वतजीवस्वभावस्तु।। ६७।।
मुक्तात्मा के लिये संसार में समयावधि होती नहीं,
अहेतुक रहें तो फिर रहें सदा। शाश्वत जीव का स्वभाव है मोक्ष रूपी कर्माभाव,
जिससे होती संसार से अलविदा।। ६७।।
६७. मुक्तात्मा के संसार में रहने की समय-मर्यादा नहीं होनी चाहिये, तथा बिना कारण (अवशिष्ट कर्म) के यदि संसार में रहते हैं तो फिर सदा के लिये रहना चाहिये। कर्म का अभाव ही मोक्ष है जो शाश्वत जीव का स्वभाव है। भावार्थ : (पिछली गााथा में दिये गए निरसन को और आगे बढ़ाते हुए शास्त्रकार कहते हैं, क्योंकि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता है अतः) मुक्तात्मा के पुनः संसार में एक निश्चित समयावधि के लिये लौटकर आना भी बिना (अवशिष्ट कर्म रूपी ) कारण के नहीं होना चाहिये। (यदि) बिना कर्म-कारण के ही उनका पुनरागमन मान लिया जाय तो फिर तो उन्हें शाश्वत आत्मा के स्वभाव के विरुद्ध सदा के लिये संसार में ही रहना चाहिये।