Book Title: Panchlingiprakaranam
Author(s): Hemlata Beliya
Publisher: Vimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust

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Page 292
________________ viii : पंचलिंगीप्रकरणम् अशरण - जिसको कोई शरण क्षेत्रावगाही पदार्थ जिसमें सब (बचाने वाला) न हो --जीवाजीव रहते व संचरण करते असदनुष्ठान - बुराकार्य, बुरे हैं कर्मकाण्ड आलोचना - अपने कृत दोषों को असद्ग्रह - गलत समझना गुरु के समक्ष स्वीकार करना व अशुभ - जो शुभ न हो, अमंगल । उनकी आलोचना करना अतत्त्वरुचि - जिसकी रुचि तत्त्व आसक्ति - गहरा लगाव में न होकर अतत्त्व में हो आम्नव - कर्मपुद्गलों का अतिचार - व्रत में लगे दोष __आत्मप्रदेश में आना जिनका परिहार संभव हो आत्मा - अरूपी जीवतत्त्व अतिथ - ऐसा मेहमान जिसका आर्य - श्रेष्ठ आगमन बिना पूर्वसूचना के हो इंद्रिय - वे अंग-प्रत्यंग जिनसे अवस्तु - असत्, जिसकी सत्ता न भान होता है इष्ट - वांछित अविरत - जो सांसारिक भोगों से इषुकला - धनुर्विद्या विरत न हुआ हो उदय - कर्म का फल देने लगना आरंभ - किसी सावद्यकार्य की उद्विग्न - चिंताग्रस्त शुरुआत उद्यम - कर्म करना आस्तिक्यजिनप्रतिपादित सिद्धांतों में उपादेय - करने योग्य, ग्रहण दृढ़ श्रद्धा करने योग्य आचार्य - मुनिसंघ का प्रमुख उपधान - किसी कार्य विशेष के आगम - आप्तपुरुषों के उपदेशों लिये किया जाने वाला विशेष का सूत्रबद्ध संकलन, जैन अनुष्ठान धर्मशास्त्र उपाध्याय - अध्यापक, तृतीय आगत - जो आ गया हो, वर्तमान परमेष्टि आहार - भोजन उपशम - अस्थाई शांति आकाश - सबको अवकाश उपासक - गृहस्थ अनुयाई (जगह) देने वाला अनंत उत्सर्ग - त्याग, लिये हुए व्रतों का

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