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१६८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
उपसंहार
इय भावणासमेओ सम्मदिट्ठी न इत्थ संदेहो। इत्तुच्चिय लिंगमिणं अव्वहिचारी ससज्झेणं ।। १०१।।
इति भावनासमेतः सम्यग्दृष्टिः न अत्र संदेहः। अतएव लिंगमिदं अव्यभिचारी तु स्वसाध्येन ।। १०१।। निससंदेह इन भावनाओं वाला साधक है
'सम्यग्दृष्टि, विगत मिथ्यात्व बन्ध ।
अतएव इस सम्यक्त्व-लिंग का स्वसाध्य से
अविनाभावी है सम्बन्ध ।। १०१।।
१०१. इस प्रकार उपर्युक्त सम्यक्त्वलिंगों की भावना से युक्त (अर्थात् जिनेश्वर परमात्मा द्वारा कहे गए जीव, अजीव, आनव, संवर, पुण्य, पाप, बन्ध, निर्जरा व मोक्ष इन नौ तत्त्वार्थों में आस्तिक्य बुद्धि सम्पन्न आत्मा निस्संदेह सम्यग्दृष्टि होता है। अतः ये (सम्यक्त्व) लिंग अपने साध्य (सम्यक्त्व) से अव्यभिचारी रूप (अविनाभाव) से (उस सम्यग्दृष्टि में) रहते ही है।
भावार्थ : इस प्रकार की भावना सम्पन्न आत्मा निससंदेह सम्यग्दृष्टि है, अतः यह आस्तिक्य लिंग अपने साध्य से अव्यभिचारी है।
(इति आस्तिक्यलिंगम्) (इति पंचलिंगीप्रकरणम्)