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१३० : पंचलिंगीप्रकरणम्
इसप्रकार संबुद्ध जन मानेंगे, सम्यक् जिन-शासन को और। करेंगे जीव-रक्षा, अतः देता हूँ उन कार्यों और लेखन पर जोर ।। ६७।।
६५-६७. अनुकम्पावान के लिये विधेय क्रियाओं में जिनालय निर्माण, साधुजन शरीररक्षणणार्थ आहारादि दान, पुस्तक प्रदान आदि का कथन करते हुवे शास्त्रकार उसी के शब्दों में कहते हैं, “प्रतिभादि गुणसंपन्नों (आत्मधर्म युक्त प्रज्ञावान मुनियों) को सदैव शरीरोपग्रह (शरीररक्षण के लिये अत्यावश्यक) वसति (रहने का स्थान), शयन, आसन, आहार,
औषधि, भैषज्य, वस्त्रादि एवं पुस्तकें (शास्त्रादि लिखवाकर) समर्पितकर जिनशासन (जिनेश्वर प्रतिपादित सिद्धान्त) को कुतीर्थियों (बौद्धादि) के मत से अधर्षणीय (अजेय) बनाऊंगा और फिर उससे गुणानुरागीजन (हेयोपादेय विवेक संपन्न लोग) निश्चित रूप से जिनधर्म में विश्वास करेंगे (उसे सम्यक् रूप से स्वीकार करेंगे) तथा वे (सर्वविरति ग्रहण करके पृथ्वीकायिकादि जीवों को) अभय करेंगे अर्थात् उनकी रक्षा करेंगे। अतः मैं ये-ये (पूर्वोक्त शयनासनादि प्रदान व पुस्तकादि लिखवाकर देने जैसे) कार्य करवाता हूँ। भावार्थ : इन गाथाओं में शास्त्रकार श्रावकों द्वारा साधुओं के जीवनधारणार्थ दानधर्म के निर्वहन एवं उनके अध्ययनार्थ पुस्तकें-शास्त्र आदि लिखवाकर प्रदान करने का महत्व प्रतिपादित करते हैं। (प्राचीन काल में शास्त्र-पुस्तकें छपने का साधन न होने से उन्हें लिहियों द्वारा लिखवाना पड़ता था जो एक श्रमसाध्य व समयसाध्य कार्य था, तथा उनके अभाव में साधुओ का स्वाध्याय सम्यक् रूप से हो पाना असंभव था।)