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१६६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
जइ पुग्गला न हुज्जा
आगारो किं न होइ सव्वत्था।
सुविणो वि अणुहविज्जइ
दिणोवलद्धो फुडं अत्था।। ८५।।
यदि पुद्गलाः न भवेयुराकारः
किं
न
भवति
सर्वत्र।
स्वप्नेऽपि
अनुभूयते
दिनोपलब्धः स्फुटं
अर्थः।। ८५।।
यदि पुद्गल नहीं होते तो जगत में,
कोई भी आकार कैसे होता संभव? ।
आकार से ही दिन में देखे पदार्थ को,
स्वप्न में भी देखता स्पष्ट मानव ।। ८५ ।।
८५. यदि (प्रतिवादी, पूर्वपक्षी) कहे कि पुद्गल नहीं होने चाहिये तो क्या आकार (पदार्थ की आकृति) सर्वत्र नहीं होती है? (जब कि उनकी विशिष्ट आकृतियों के कारण ही) व्यक्ति दिन में देखे हुए पदार्थ को स्वप्न में भी स्पष्ट अनुभव करता है (देखता है)। (इस गाथा में शास्त्रकार पुद्गल का अस्तित्व सिद्ध करते हैं।)