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१८० : पंचलिंगीप्रकरणम्
तवसा उ निज्जरा इह हंदि
उ
सव्ववाईणं।
पसिद्धा तवो विहाणं
इहरा
किरियावाईण कह जुत्तं ।। ६२ ।।
तपसा तुः निर्जरा इह हंत
प्रसिद्धा
तुः
सर्ववादीनाम् ।
इतरथा
तपो
विधानं
क्रियावादीनां कथं युक्तम्? ।। ६२।।
तप से होती है कर्म निर्जरा यह तो,
मानते हैं वादी और प्रतिवादी भी। अन्यथा तप का विधान,
कैसे करते क्रियावादी भी।। ६२ ।।
६२. यहाँ (इस प्रसंग में) तप से निर्जरा होती है, ऐसा तो सभी वादों के मानने वाले मानते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो क्रियावादियों में भी तप का विधान कैसे उचित होता?