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१८२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
मिच्छत्ताइनिमित्तो बंधो
इहरा कहं तु संसारो। न य लोगे वि अबद्धो
मुच्चइ पयडं जओ हंदि।। ६३ ।।
मिथ्यात्वादिनिमित्तो बन्धः
इतरथा कथं तु संसारः । न च लोके अपि अबद्धः
मुच्यते प्रकटं यतः हंत।। ६३ ।।
मिथ्यात्वादि निमित्तों से होते हैं बन्ध,
अन्यथा कैसे हो भव-संसार?। लोक में जो है ही नहीं आबद्ध,
उसकी कैसी मुक्ति, कैसा उसका भव-संसार ।। ६३ ।। ६३. मिथ्यात्व आदि (अविरति, प्रमाद, कषाय और योग) हेतुओं से ही बन्ध संभव हैं, इनके बिना संसार भ्रमण भी कैसे संभव है? लोक व्यवहार की दृष्टि से भी आबद्ध (बन्धनयुक्त) जीव ही मुक्त होते हैं। जो बंधा ही नहीं है उसे प्रकट रूप से कैसे मुक्त कराया जा सकता
भावार्थ : तत्त्वतः लोक में बद्ध की मुक्ति होती है अतः उस हेतु उपायों का निरूपण है न कि अबद्ध के मोक्ष का।