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१८४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
तदणाइसिद्धजोगो असंगओ न य अन्नबंधम्मि। अन्नो मुच्चइ जुत्तं खणभंगो ता कहं भवउ?।। ६४।।
तदनादिसिद्धयोगः असंगतः न च अन्यबन्धे। अन्यो मुच्यते युक्तं क्षणभंगः तत् कथं भवतु?।। ६४।।
अनादि सिद्धयोग भी नहीं उचित क्योंकि,
___ हो नहीं सकती बंधन बिन मुक्ति।
क्षणिकवाद की क्षण-क्षण में बंध और मुक्ति
की भी उचित नहीं है युक्ति ।। ६४।।
६४. और उस (उपर्युक्त) कारण से अनादि सिद्ध योग संगत नहीं है। (क्योंकि सिद्ध या मुक्त तो वही हो सकता है जो पहले बद्ध हो, अतः अनादि सिद्धत्त्व संभव नहीं है।) इसी प्रकार क्षणिक वादियों की एक क्षण में बंध और दूसरे क्षण में मुक्ति का तर्क भी उचित नहीं हैं (क्योंकि इसमें भी 'बन्ध किसी का और मुक्ति किसी और की' का अतर्कसंगत प्रसंग उपस्थित होता है।) भावार्थ : जो अनादिमुक्त पुरुषविशेष से ईश्वर की सिद्धि करते हैं वह ' भी संगत नहीं है क्योंकि यदि ईश्वर मुक्त है तो वह पहले बंधनयुक्त अवश्य रहा होगा। (क्षणिकवादियों) के मत में जो ‘एक क्षण में बंध और अन्य क्षण में मोक्ष' की धारणा भी यक्त नहीं है।