________________
१६८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
सुहपयडीओ पुण्णं
असुहाओ हुंति पावरूवा उ। सुहिदुहिजणाववाओ
इत्तुच्चियं जं समा भूया ।। ८६ ।।
शुभप्रकृतयः पुण्यं
अशुभः
भवति
पापरूपास्तु।
सुखीदुःखीजनोपपातः
अतएव यतः समानि भूतानि।। ८६ ।।
शुभ प्रकृति पुण्य है और निश्चित ही,
अशुभ प्रकृति होती है पाप रूप। अतः आत्मना समान होने पर भी,
सुखी-दुःखी जीव हैं जग में अनूप।। ८६ ।।
८६. (कर्म प्रकृतियों के संदर्भ में) शुभ प्रकृति (के कर्म या कार्य) पुण्यरूप (कर्म-बन्ध के कारण) होते हैं तथा अशुभ प्रकृति (के कर्म या कार्य) पापरूप (कर्म-बन्ध के कारण) होते हैं। इसीलिये सभी जीव (आत्मा के रूप में) समान होने पर भी (जगत में शुभाशुभ प्रकृतियों के कारण ही) सुखी-दुःखी प्राणियों के रूप में उत्पन्न होते हैं, अर्थात् सुख-दुःख को प्राप्त करते हैं। (यहाँ शास्त्रकार जीवों की आत्मना समानता तथा कर्मणा असमानता का निर्देश करते हैं।)