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१७२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
पाणवहाईहिंतो सुहासवो
किं न सोयरीयाण। कह हुज्ज आगमो
जीवघायसंदंसगो सुद्धो।। ८८ ।।
प्राणवधादिभ्यः शुभानवः
किं
न
शौकरिकाणााम्।
कथं
भवेत्
आगमः
जीवघातसन्दर्शकः शुद्धः।। ८८।।
यदि जीवहिंसा से शुभानव होता हो तो,
कसाई-कर्म भी होगा शुद्ध। कैसे हो हिंसा प्रतिपादक आगम शुद्ध,
पूछते सभीजन बुद्ध-प्रबुद्ध ।। ८८ ।। ८८. (यदि प्रतिवादी पूछे कि) क्या शौकरिकों (हिंसक कर्मकाण्ड करने वाले व शूकरादि का शिका करने वाले) को जीवहिंसादि (कर्मकाण्ड में पशुवध आदि) से शुभानव नहीं होता है? (तो इसका समाधान यह है कि) यदि ऐसा हो तो कसाइयों (शिकारियों) को शुभानव क्यों नहीं होगा? अतः जीवहिंसा प्रतिपादक आगम (शास्त्र) शुद्ध कैसे होगा?